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________________ व्यवहार समुरेश P... .. ... . ... .. भार' ने भी शक्तिहीन के आश्रय से विजिगीषु की इसी प्रकार हानि पवाई है ॥ १॥ शत्रु द्वारा सताया गया विजिगीषु जब अपने समान शत्रु द्वारा सखाये हुये अन्य राजा का माश्रय लेता है, तो वह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार नदी में बहने या दूबने वाला दूसरे पहने या डूबने वाले व्यक्ति का प्राश्रय लेने से नष्ट हो जाता है। अतः अस्थिर (श-परिवर-लोणशक्ति) को स्थिर का हो पाश्रय लेना चाहिये, अस्थिर का नहीं ।। ५८ ॥ नारद ने भी क्षीणशक्ति पाले का माश्रय लेने से इसी प्रकार हानि बताई है॥१॥ स्वाभिमानी को मर जाना बच्छा, परन्तु पराई इच्छापूर्वक अपने को बेचना अच्छा नहीं, अतः स्वाभिमानो को शत्र के लिये पात्मसमर्पण करना उचित नहीं । ५En नारद ने भी शत्र को आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा स्वाभिमानी के लिये मृत्यु प्राप्त करना हो अधिक श्रेष्ठ बताया है ।। १ ।। ___ यदि विजिगीषु का भविष्य में कल्याण निश्चित हो तो उसे किसी विषय में शत्र को प्रधानता स्वीकार करना श्रेष्ठ है ॥६० ॥ हारोत' ने भी उक्त प्रयोजन-बश शत्र संश्रयको श्रेयस्कर बताया है॥१॥ जिस प्रकार खजाना मिलने पर उसी समय उसे प्रहण किया जाता है, उसमें समय का उम्सामन नहीं किया जाता उसी प्रकार राजसेवकों को भी राजकीय कार्यों के सम्पादन करने में समय नहीं चलाना चाहिये, तु तत्काल सम्पन्न करता पाये ।। ६ ।। गौसम ने भी राजसेवकों का यही कसैन्य बताया है।॥१॥ जिस प्रकार नम मण्डल में मेष (बादल) अचानक ही उठ जाते हैं, उसी प्रकार राजकीय कार्यों की उत्पत्ति अचानक ही हुआ करती है, अतपय सन्धि व विग्रह को छोड़ कर अन्य राजकीय कार्यों को सम्पन्न करने में विलम्ब नहीं करना चाहिये ।। ६२ ।। गुरु ने भी संधि विग्रह को छोड़कर अन्य राजकीय कार्य मेघ सरश अचानक पाप्त होने वाले व तत्काल करने योग्य बताये है ॥ १॥ ___ जय विजिगीपुको यह मालूम हो जावे कि थाक्रमणकारीका शत्रु उसके साथ युव करनेको तैयार है, (दोनों शत्रु परस्परमें युद्ध कर रहे हैं ) तब इसे वैधीभाव (वशिष्ठ से सन्धि व निर्वलसे युद्ध) अवश्य करना चाहिये ।। ६३॥ तथा प मागुरि:- संघबाइ यस्य बकासोनं यो पलेन समाश्रयेत् । स तेन सह मश्वेत पौरपाया गः ॥॥ २ तथा नारदः-बलं बानिनेनैव सह मश्यति निश्चित । नीममानो मथा नया मीषमान समाश्रितः ॥१॥ ३ तथा प नारदः-वरं वनं पर मृत्युः साहकारस्य भूपतेः। म शवोः संश्रयाद्राज्य.."कार्यव्यंजन || ॥ तथा घ हारीत:-परिणाम शुभ ज्ञात्वा शत्रुनः संश्रयोऽपि । करिमश्विद्विषये कार्यः सतत चन || | ५ तथा च गीतमः-निधानदर्शने यद्वकासपो न कार्यते । राजकृत्पेषु सर्वेषु तथा कार्य: सुसेवकः॥१॥ ६ तथा गुरु:--राजस्यचिन्त्य पदकस्मादेव जायते। मेवबाह रमणकार्य मुक्दै सम्धिविग्रह ।।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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