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________________ * नीतिवाक्यामृत वचन शोभायमान नहीं होता, उसी प्रकार धर्मसे शून्य मनुष्य भी शोभायमान नहीं होता ॥१॥ जो पुरुष सांसारिक सुखोंके लिये मोक्षसुख देनेवाले धर्मका त्याग कर देता है वह निंद्य उस मूर्सके सहश है जो लकड़ीके लिये कल्पवृक्षको काटता है, चूर्णके लिये चिंतामणिरत्नको अग्निमें फेंकता है, एक कोनेके लिये नौकाको नष्ट करता है और गधीको खरीदनेके लिये अपनी कामधेनुको दे देता है ।। अब एककालमें अधिक पुण्यसमूहके संचयकी दुर्लभता बताते हैं : कस्य नामकदैव सम्पद्यते पुण्यराशिः ॥३३॥ अर्थ :-किसको एक ही समयमें प्रचुर पुण्यसमूह प्राप्त होता है ? नहीं होता। भावार्थ:-लोकमें कोई भी व्यक्ति एफकालमें पुण्यराशिका संचय नहीं कर सकता किन्तु धीरे कर सकता है ।।३।। नीतिकार भागुरिने' कहा है कि 'मनुष्योंको मत्यलोकमें सुख नहीं मिलता उन्हें सुखके बाद दुःख और दुःसके बाद सुख प्राप्त होता है क्रीड़ामात्रमें नहीं || अब आलसी पुरुषके मनोरथोंकी निष्फलता बताते हैं :-- अनाचरतो मनोरथाः स्वप्नराज्यसमाः ॥३४॥ अर्थ :-उद्योगशून्य पुरुषके मनोरथ (मनमें चिसयनकी हुई सुखकी कामनाएं.) स्थानमें राज्य मिलनेके समान व्यर्थ होते हैं। जिसप्रकार स्थप्नमें राज्यकी प्राप्ति निरर्थक है उसीप्रकार उद्योगशून्य भालसी मनुष्यकी सुखप्राप्तिकी कामनाएं भी व्यर्थ होती हैं। निष्कर्ष :-इसलिये प्रत्येक व्यक्तिको धर्म, ज्ञान और धनादिके संचय करनेमें नीतिपूर्ण पुरुषार्थ करना चाहिये ॥३४॥ बल्लभदेव' नामके विद्वानने कहा है कि 'उद्योगसे ही कार्य सिद्ध होते हैं मनमें चाहने मात्रसे नहीं सोते हुए शेरके मुख में हिरण स्वयं नहीं प्रविष्ट होते' ।।१।। अब जो व्यक्ति धर्मके फलका उपभोग करता हुआ भी पापमें प्रवृत्ति करता है उसको कहते हैं :धर्मफलमनभवतोऽप्य धर्मानुष्ठानमनात्मज्ञस्य ॥३॥ .-- --...-- ---- - तथा च भागुरि:सुखस्थानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखं । न हेलया सुखं नास्ति मर्त्यलोके भवेन्नणां ।।१।। ५ मु० मू० पु. में "स्वयमनाचरतां मनोरथाः त्वान राज्यप्तमाः' ऐसा पाठ है, परन्तु अर्थ भेद कुछ नहीं है। ३ तथा च वल्लभदेव :उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सिंहस्य सु-तस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।३।। ४ "मः" इति मु० मू० पुस्तक में पाठ है।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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