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________________ व्यसनसमुश ...................................................................... आमदनीसे अधिक धन-व्यय करना व अपात्रों को धन-आदि देना अर्थदूषण है ।। २२ । नैतिक पुरुष सहकार क्रोधव नियोजन घास का अंकर भी नष्ट न करे, फिर मनुष्य के विषयमें सो कहना ही क्या है। अर्थात् उसका सताना या वध करना महाभयकर है ॥२३॥ भारशरज विद्वान् ने भो निष्कारण कष्ट देने या वर करनेके विषय में यहो कहा है ॥१॥ मुद्ध-परम्परासे पुराण मन्थोंके आधारसे सुना जाता है कि निष्प्रयोजन प्रजा को पीड़ित करने वाले 'वातापि' व 'इल्वल' नामके यो असुर अगम्य' नामक सन्यासो द्वारा नष्ट हुए ॥ २४ ।। यदि राजा द्वारा अपराधीके अपराधानुकूल न्यायोचित जुर्माना भादि करके फरोड़ रुपए भी ले लिए गये हों, तो उससे उसे दुःख नहीं होता, परन्तु विना अपराध के-अम्यायद्वारा तृण-शनाका बराबर दंड दिया जाता हो, तो उमसे प्रजा पीड़ित होती है ।।२।। भागुरि' विद्वान ने अन्याय-पूर्वक द्रव्य हरणके विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥१॥ जिस प्रकार वृतका मूलोच्छेद करनेसे उससे फन-प्राप्ति केवल उसी समय एफ वार होती है उसी प्रकार जो गजा अन्यायके द्वारा प्रजाका सर्वस्व अपहरण करता है. उसे उसी समय केवल एक बार ही धन मिलता है, भविध्यमें नहीं ॥२६॥ बल्लभदेव' विद्वान् ने भी प्रजा का सर्वस्व अपहरण करने वाले राजाके विषयमें यही कहा है || प्रजाकी सम्पत्ति निश्चयसे राजा का विशाल खजाना है, इसलिए उसे उसका उपयोग न्यायसे करना चाहिए मनुचित उपाय-अपराध-प्रतिकूल आर्थिक दंड आदि द्वारा नहीं ॥ २७ ॥ गौतम, विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ जो व्यक्ति राजकीय तृण भी चुरालेता है, उसे उसके बदले में सुपर्ण देना पड़ता है। क्योंकि राज. कोय साधारण बस्तुकी चोरी राज-दंड-मादिके कारण पूर्ष- संचित समस्त-धन को भो नष्ट करानेमें कारण होती है, मतः नैतिक व्यक्ति को राजकीय चोरी-क्लैक मार्केट श्रादि-द्वारा धन संचय करना छोड़ देना चाहिए ॥ २८ ॥ गर्ग' विद्वान ने भी कहा है कि राजकीय अल्प धन का भी अपहरण गृहस्थ के समस्त धनके नाश का कारण है ॥ १ ॥ - तपा र भारद्वाजः--ऋणदोपि नो कार्यों बिना कार्येण साधुभिः । येग नो सिम्यते किंचित् मकिपुनर्मानुष मा] २ तथा न मागुरिः-गृहोता मैप दुःलाय काटिरप्पपराधिमः । मायान गृहीतं यज भुजा नणमरियम् ॥१।। ३ तथा प वल्ममष- मुलच्छ यथा नास्ति तफलस्य पुनस्तरोः । सर्वस्वहरणे वान नृपस्य पदुकः ॥३॥ ४ तथा गौतमः-जानां विभवो भरच सोऽपरः कोश एप हि । नृपाणा युक्तिो प्रायः सोऽम्यान म कहिंचित् ॥१॥ ५ तथा गर्ग:- पोहरे भूप वि धमपि स्वल्पतरं हि यत् । गृहस्थस्यापि विशस्म तानाशाय मजायते ||
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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