________________
२२७
दूतसमुद्देश
दूत शत्र के मंत्री, पुरोहित और सेनाध्यक्षके समीपवर्ती पुरुषों को धन-दान द्वारा अपने में विश्वास उत्पन्न कराकर शत्र बदयकी गुम बात-युद्धादि--व उसके कोश-सैन्यके प्रमाणका निश्चय करे ॥६॥
दूत शत्रु के प्रति स्वयं कठोर वचन न कहकर उसके कहे हुए कठोर वचन सहन करे ।। १०॥
शुक विद्वान् ने कहा है कि लक्ष्मी चाहनेवाला दूत शत्र से कर्कश वचन न कहकर उसके कठोर बचन सहे और उत्तर न देखे ॥१॥
जब दूत शत्र-मुखसे अपने गुरु ष स्वामीकी निन्दा सुने तब उसे शान्त नहीं रहकर उसका यथायोग्य प्रवीकार करना चाहिये ।। ११ ।।
जैमिनि विद्वान् ने कहा है कि 'जो पुरुष शत्र से की हुई अपने गुरु व स्वामीकी निन्दा सुनकर कुपित नहीं होता, वह नरक जाता है ॥१॥ निरर्थक विलम्बसे हानि
स्थित्वापि रियासतोऽवस्थान केवलमुपक्ष्यहेतुः ॥ १२ ॥ अर्थ-जो मनुष्य स्थित होकरके भी किसी प्रयोजन-अर्थ-लाभादि-सिद्धि के लिये देशान्तरमें गमन करनेका इच्छुक है, यदि वह किसी कारणवश--आलस्य-आदिके कारण-रुक जाता है या जानेमें विलम्ब कर देता है, तो इससे उसके धन-लाभादि प्रयोजन नष्ट होजाते हैं। अत एव नैतिक ग्यक्तिको गन्तव्य स्थानमें अवश्य जाना चाहिये।
भ्य विद्वानने भी कहा है कि 'नैतिक पुरुष गन्तव्य स्थानमें जानेसे विलम्ब न करे, अन्यथा उसकी धन-क्षति होती है ॥१॥ राजनैतिक-प्रकरण में अभिप्राय यह है कि जो विजिगीषु स्थित होकरके भी शक्ति-संचय-सैनिक-संगठन आदि करके शवपर चढ़ाई करनेके उद्देश्यसे शत्र -देशमें आनेका इच्छुक है, यदि वह वहाँ नहीं जाता या विलम्ब कर देता है, तो उसके धन-जन-प्रादिकी क्षति होजाती है क्योंकि शत्र उसे होनशक्ति समझकर उस पर चढ़ाई कर देता है, जिसके फलस्वरूप उसके धन-जनकी क्षति होती है ।। १२ ।। दूतोंसे सुरक्षा व उसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन
वीरपुरुषपरिचारितः शूरपुरुषान्तरितान् तान् पश्येत् ।। १३ ।। श्रूयते हि किल्ल चाणिक्यस्तीक्ष्णदूतप्रयोगेणेक नन्दं जधान ॥ १४ ॥
1 तथा च शुक्रः-असमर्थेन इतेन शत्रोर्यत् पर गया । तर सन्तान हातम्यमुसरं नियमिच्छता ॥ 1 ॥ २ सभा च जैमिनि-गुरोषो स्वामिमो वापि कृतां निन्दा परेण तु । यः श्रृणोति म कुप्येष स पुमान्नरकं प्रजेत् ॥॥ . ३ तथा च रैम्पः-अवश्यं यदि गन्तव्यं न कुर्याद्विलम्बनम् । गन्तव्यमेव नो पेखि तस्माइनपरिक्षयः ।