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________________ ४ * नीतिवाक्यामृत दोसे रहित और निःशङ्कित आदि आठ अंगोसहित जैमाका तैसा - यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन जो कि प्रशम (कोधादि कपायोंकी मंदता) और संवेग (संसार से भय करना) आदि विशुद्ध परिणामरूप चिह्नोंसे जाना जाता है ॥१॥ अब आपका स्वरूप कहते है —— आपके स्वरूपको जानने में प्रवीण शास्त्रकारोंने कहा है कि जो सर्वेश, सर्वलोकका ईश्वर-संसारका दुःखसमुद्रसे उद्धार करने वाला, सुधा और तृषा आदि १५ दोपोंसे रहित (धीतरागी) एवं समस्त प्राणियोंको मोहमा प्रस्पन्त उपदेश देनेवाला है उन ऋषभादि तीर्थकुरोको श्राप्त (समा ईश्वर) कहते हैं ||२|| * आमका स्वरूप और भेद कहते हैं : - जो शास्त्र मनुष्यको धर्म, अर्थ, काम और मोह इन चारों पुरुषार्थ में प्रवृत्ति कराने में समर्थ हो तथा हेय ('छोड़ने योग्य) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) का ज्ञान कराकर त्रिकालवर्ती पदार्थोंका यथार्थबोध कराने में प्रवीण हो उमे आगम कहते हैं ॥१॥ जिस प्रकार लोक में माता और पिताकी शुद्धि (पशुद्धि) होने पर उनके पुत्रमें शुद्धि देखी जाती है उसी प्रकार आपकी विशुद्धि (त्रीतरागता और सर्वज्ञता आदि) होने पर ही उसके कहे हुए आगम में विशुद्धता - प्रामाणिकता होती है अतः जो सीधेङ्करों द्वारा निरूपण किया गया हो उसे श्रागम कहा है | आगमके चार भेद हैं : (१) प्रथमानुयोग (६) करणानुयोग (३) परणानुयोग (४) द्रव्यानुयोग धार्मिक पुरुष जिससे अपने सिद्धान्तको भलीभाँति जानता है उस पुराण ( २४ तीर्थकुर आदि ६३ शलाका पृज्य महापुरुषों का चरित्रप्रन्थ) तथा किसी एक पूज्यपुरुषके परिभ्रमन्थको प्रथमानुयोग कहते है ||१|| जिसमें अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकका तथा नरक और तिर्यकच आदि चारों गतियाँका न किया गया है उसे करणानुयोग कहते हैं |य "मेरा यह सदाचार ( अहिंसा और सत्य आदि व्रत ) है और उसकी रक्षा का क्रमिकविधान यह हूँ" इस प्रकार चरित्रनिष्ठ आत्मा चरणानुयोग आश्रित होती हैं । 1, 2, kai sulmua as $jo go for + ३, देखो यशस्तिलका ६० २०६ । ४- देखो यशस्तिक ०६०२७
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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