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________________ मन्त्रिसमुद्देश प्रिय लगनेवाले ऐसे कठोर वचन बोलकर राजाको दुःखी करता है तो उसम है, परन्तु wor evदेश देकर राजाका नाश करना अच्छा नहीं- अर्थात् तत्काल प्रिय लगने वाले, किन्तु हानिकारक वचन बोलकर अकार्यका उपदेश देकर उसका नाश करना अच्छा नहीं ||५३|| are विद्वानने कहा है कि 'मंत्रीको राजाके प्रति भविष्य में सुखकारक किन्तु तत्काल पीड़ा-कारक बोलना wwar है, किन्तु तस्कrer प्रिय और भविष्य में भयानक बनोंका घोलना नहीं ॥११४ prakerSqUqU | 1343 14 मैत्रीको आग्रह करके राजासे जो कर्त्तव्य कराना चाहिये पीयूषमपिवतो चालस्य किं न क्रियते कपोलहननं १०३ MIII ॥ ५४ ॥ अर्थ ---जब का माताके स्तनोंका दूध नहीं पीता, तब क्या वह उसके गालों में थप्पड़ लगाकर बूम नहीं पिलाती ? अवश्य पिलाती है । साराँश यह है कि जिसप्रकार माता बच्चे के हिसके लिये कालिक कठोर और भविष्य में हितकारक व्यवहार करती है, उसीप्रकार मंत्रीको भी राजाकी लिये refers तकारक और तत्कालमें कठोर व्यवहार करना चाहिये ||२४| " विद्वान ने भी कहा है कि 'जिस प्रकार माता को ताड़ना देकर दूध पिलाती है, उसी फिर मंत्री भी खोदे मार्ग में जाने वाले राजाको कठोर वचन बोलकर सम्मान में लगा देता है ॥ मैदियों का फसव्य— मंत्रिणो राजद्वितीयहृदयत्वाम केनचित् सह संसर्गे कुर्युः ॥५५॥ अर्थ- मंत्री लोग राजाके दूसरे हृदम रूप होते हैं-- राजारूप ही होते हैं, इसलिये उन्हें किसीके नेहादि सम्बन्ध न रखना चाहिये ||१५|| सिकार शुक्र ने भी कहा है कि 'मंत्री लोग राजाओं के दूसरे हृदय होते है; इसलिये उनको इसकी लिये दूसरेसे संसर्ग नाहीं करना चाहिये ||१|| राजाके सुख-दुःखका मंत्रियों पर प्रभाव- राज्ञोऽनुग्रहविग्रहावेव मंत्रिणामनुग्रह चिग्रहो ॥५६॥ धर्म - राजाकी सुख-सम्पति ही मंत्रियोंकी सुख-सम्पति है एवं राजा के कष्ट मंत्रियोंके कष्ट नारद:- पर पीड़ाकर पर परिणामसुखावई। मंत्रिया भूमिपालस्व म ह ममानकम् ॥१॥ पीपूरमपि पिचतः बालस्य किं क्रियते कपालहननम् । गेला मु० ब. इ० शि० भू० प्रतियोंमें पाठाम्वर है यह है कि बच्चा दूधको भी पो रहा और बरि वह दूध उसके किये अपथ्य — हानिकारक है, तो क्या नहीं किया जाता है अवश्य किया जाता है, उसीप्रकार मंत्रो भो है पीने पर माके द्वारा उसे मस्तक के लिये भविष्य में हानिकारक उपदेश कदापि न देये । –सम्पादक गर्गः- जनमी वालक पद्धस्खा स्तम्यं प्रपाययेत्। एवमुम्भागंगो राजा भारमंत्रा रचि १ ॥ शुक्रः- मंत्रियः पार्थिवेन्द्रायां द्वितीय हृदय ततः । ततोऽन्येन न संसर्गः कार्यो नृपसुन्दये ॥१॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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