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________________ ३५० नीतिवाक्यामृत कत्तव्यः किं पुनर्न मइति ॥२६॥ मन्तःसारधनमिव स्वधर्मो न प्रकाशनीयः ॥२७॥ मदप्रमादर्जेदी गुरुपु निवेदनमनुशयः प्रायश्चि प्रतीकारः ॥२८॥ अर्थ-किसी मनुष्यका रूपकार करके उसके समक्ष प्रकट करना निम्य है, क्योंकि इससे वह प्रत्युपकारके पहले सपकारीसे वैर विरोध करने लगता है।।२०|| भागुरि' ने प्रत्युपकारकी भभिलाषासे किये जाने वाले उपकारको निष्फल बताया है ॥१॥ बुद्धिमानोंको विद्वान् होकर अभिमानी व कपण प्रथा होकर लोभी, घमण्डी, अमाहिष्णु व पारस्परिक कलह सत्पन कराने-बालोंको किमी भी कामे नियुक्त करना चाहिये, क्योक ससे कार्य सिद्धि नहीं होती और उक्त दोनोंका निर्वाह होना भी ममम्मद है ॥ २१ ॥ हारीत' का भी नियुक्ति के विषय में यही मत है ॥२॥ बुद्धिमान को वमन की हुई बस्तुकी तरह स्वयं दिया हुया दान ग्रहण करनेकी अभिलाषा नहीं करनी चाहिये ॥२॥ जैमिनि विद्वान ने भी दान की हुई वस्तुके विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥ कुलीन पुरुष किसीका उपकार करके ससका दिग्दर्शन न करते हुये मौन ही रखते हैं ।। २३ ॥ बल्ममदेव विहान के संगृहीत श्लोक का भी यही अभिप्राय है ॥५॥ सरपुरुष दुसरेकी बुराई व दोष सुनकर ऐसे अनसुने बन जाते हैं मानो कि पे पहरे ही हो ॥२४॥ गर्ग' विज्ञान ने भी 'इसरों के दोष न सुनना' महापुरुषों का कर्तब्य बताया है ।। नापीमासिद सूरिने भी अपने दोनों पर दृष्टि रखने वाले को मोषमार्गी बनाया है॥॥ पर स्त्रियोंकी सरफ दृष्टिपास करने में भाग्यशामो पुरुष पन्धे होते है-जनपर कुदृष्टि नहीं रखते। अभिप्राय यह है कि उनका अपनी पत्नी के मिवाय अन्य स्त्रीजाति पर मातृ-भगिनी भाव होता ॥२६॥ हारीदने भी परकलबकी और कुहनि न रस्यनेवालेको भाग्यशाली कहा है ५ ॥ बुद्धिमान्को अपने गृहमें पदापण किये हुए राजा भी सम्मान करना चाहिये। फिर म्या महपुरुषका नहीं करना चाहिये ? अवश्य करना चाहिये ॥२६॥ , सभा - भाविः-बोन्यस्य करते कृत्य प्रतिकृत्पतिवाम्मा । न त कस्य मवेत्तस्य परमात्फबापदायकम् ॥ । तवा हारीत:-समर्थी मानसंयुक्ती पशिस्ती मलमयो । मियोपदेशपरी महतो मियो क बोजवेत् ।। ३ व्या . जैमिनि:-सायं समरान प्राय पुनरेव तत् । पमा सवाम् गाय दूरस: परिवर्जयेत् ।। • तमा काममदेव:-इसमपरा काचिद्राएयते महवां महतो बा भावविहा। पहला मन्ति पूरसः परसः प्रत्युपकारमा ॥ १ वा गर्ग:परदोवान एवम्ति येऽपि स्युनरपुयाः । शृपवतामपि शेषः स्वायतो दोषाम्बसम्भवात् १० मारवादीभसिंहः-अन्यीकमिपास्मीयमपि दोष प्रपश्पता। समः क्तु मुत्तोऽमपुक्तः कायेन वेदपि । • वा हारोवामपदेशान्तरे धर्मों पः इतरच सुपुरमः ३१ पनि तेऽश्यस्य पीचन्ते विवाविनीम् ||AI
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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