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* नीतिवाक्यामृत
रावण' नामके विद्वान् ने कहा है कि 'नम्रतायुक्त धूर्तपुरुष, पहलवान, खोटाबंध, जुआरी, शठ, सहकार करने वाले चारण ( भाट ) और पोरोंको जो धन दिया जाता है. वह निष्फल है ।"
विशदविवेचनः
शास्त्रकारोंने लिखा है कि प्राणियों का मन प्रसन्न होने पर भी यदि तप, दान और ईश्वरादि की भक्ति 1) से शून्य है वो वह कोठीमें रकये हुए धान्यादिकके बीजके समान स्वर्ग एवं मोक्षरूप उत्सम फलोंको करने में समर्थ नहीं हो सकता । भावार्थ:-- जिस प्रकार धान्यादिकके बीज केवल कोठी में भरे हुए रक्खे हे मान्य करों को उत्पन्न नहीं कर सकते, परन्तु जब उन्हें खेत में बोया जावेगा और खाद्य अनी बादि सामग्री मिलेगी तभी वे धान्यादिकके अकुरोंको उत्पन्न करनेमें समर्थ होते हैं उसी प्रकार प्रशस्त मन भी जब तप, दान और ईश्वरभक्ति से युक्त होगा तभी वह स्वर्गादिके उत्तमसुखों को कर सकता है, अन्यथा नहीं ।
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आचार्य श्री यशस्तिलक में लिखते हैं कि विद्वानोंने अभय, आहार, औषधि और ज्ञानदानके भेद का दान पात्रों में भक्तिपूर्वक यथाशक्ति देनेका विधान बताया है ||१||
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we मत्येक दान का फल भी बताते हैं कि अभयदान ( प्राणियों की रक्षाकरना) से दावा को शरीर बाहारदानसे सांसारिक भोगोपभोग सामग्री, औषधिदानसे निरोगी शरीर और विधादान
पद प्राप्त होता है | ||२||
सबसे पहले विवेकी पुरुषको सदा समस्त प्राणियों को अभयदान देना चाहिये- अर्थात् उसे समस्त की रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि अभयदानसे शून्य व्यक्ति परलोकमें कल्याणकी कामनासे कितनी श्री शुक्रियाएं ( जप और तप प्रभृति ) क्यों न करे परन्तु वे सब निष्फल होती हैं ||३||
समस्त दानोंमें अभयदान श्रेष्ठ है इसलिये जो इसे देता है, वह दूसरे दान करता हो या न भी सरवर हो तथापि उसे उत्तम फल मिलता है |
जो व्यक्ति अभयदान देता है उसने समस्त आगम को पढ़ लिया और सर्वोत्कृष्ट तपश्चर्या कर श्री वा समस्त दान कर लिये ||५||
निष्कर्ष :- नैतिक पुरुषको ऐहिक और पारलौकिक सुख प्राप्ति के लिये पात्रदान में प्रवृति करनी हिये ॥१०॥
१ तथा च चारार्पण :
धूर्ते दिन महले च कुर्वेये कैतवे शठे ।
चरण चौरेषु दतं भवति निप्पलं ||१||
२ यशस्तिलक प्रा०८ से ।
३, ४, ५, ६, यशस्तिलक प्रा०८ से ।