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________________ सेनापतिसमुद्देश . .. ... .. . ... मान मात्र किया हो, श्रात्मज्ञानी, समस्त सेना व अमात्यप्रभृति प्रधान राज-सेवकोंका प्रेमपात्र, जिसका शरीर योद्धा बोंमे लोहा लेने की शक्ति-सम्पन्न और मनोज्ञ (युद्ध करने में उत्साही) हो, स्वामीकी श्राहा-पालन, युद्ध में विजय प्राप्ति व राष्ट्र के हित-चितवनमें विकल्प रहित, जिसे स्वामीने अपने समान समझकर सन्मानित व धन देकर जनहित किया हो. छत्र चामरादि राज-चिन्होंसे युक्त और समस्त प्रकारके कष्ट व खेदोंकी सहन करनमें समर्थ ये सेनाध्यक्ष गुण है। साश यह है कि उक्त गुण विभूषित बीर पुरुषको मनाध्यक्ष पदपर नियुक्त करनेसे विजिगीषुको विजयलक्ष्मी प्राप्त होती है ।।१।। शुक्र विद्वान्ने भी कहा है कि 'जो राजा समस्त गुगा-विभूषित सेनाध्यक्षकी नियुक्ति करता है, वह शत्रु-कृत पराभव प्राप्त नहीं करता ॥१॥ जिसकी प्रकृति (प्रधान पुरुष) प्रात्मीय व इसरे शत्र ऑसे पराजित होसके, तेज-शून्य, स्त्रीकृत उपवोमे घश किया जानेवाला (जितेन्द्रियता-शून्य), अभिमानी; व्यसनासक्त, मर्यादासे बाहर धनव्ययी, चिरकाल पर्यन्त परदेशवासी, दरिद्र, सैन्यापराधी, सबके साथ बैर-विरोध करनेवाला, अनुचित बातको जाननेवाला, अपनी आयको अकेला खाने वाला, स्वच्छन्द प्रकृति-युक्त, लामोके कार्य व आपत्तियोंका उपेक्षक, युद्ध-सहायक योद्धाओंका कार्य विघातक और राजहित चिन्तकोंसे ईष्र्यालु ये सेनापतिके दोष हैं। अभिप्राय यह है कि उक्त बोध-युक्त पुरुषको सेनाध्यक्ष बनानेसे राज्य क्षति होती है ।। २ ।। गुरु विद्वामने कहा है कि जो मन्दबुद्धि राजा सेनापसिके दोष-युक्त पुरुषको सेनापति बनाया है, वह मेनापति प्रचुर सैनिक शक्ति युक्त होनेपर भी विजयश्री प्राप्त नहीं कर सकता ॥१॥ __ जो राज-सेवक राजकीय प्रधान पुरुषोंकी माईकी तरह विनय करता है, वह चिरकाल तक सुखो रहता है । अर्थात् जिसप्रकार नाई नगरमें प्रविष्ट होकर समस्त मनुष्यों के साथ बिनयका बर्ताव करनेसे जीवन-निर्वाह करता हुआ सुखी रहता है, उसीप्रकार राजकीय पुरुषोंके साथ बिनयशील राजसेवक भी चिरकाल तक सुखी रहता है ॥३॥ शुक्र विद्वामने कहा है कि 'जो राज-सेवक राजकीय प्रकृतिकी सदा बिनय करता है वह राजाका प्रेम. पात्र होकर चिरकाल तक सुखी रहता है ॥१॥ इति सेनापति-समुद्देश। । तथा च शुक्रः-सर्वगुणः समोपेत सेनामाचं करोति यः । भूमिपानो न चाप्नोति स शव स्मः पराभयं ॥३॥ २ तथा च गुरुः सेनापति स्वदोषाव्यं यः करोति स मन्दधीः । न जयं सभते संल्ये बहुसेनोऽपि सक्दचित् ॥ill ३ तथा घ शुक:- सेवकः प्रहतीनां यो नम्रता पाति सर्वदा । स नन्दति चिरंकालं भूपस्यापि प्रियो भवेत् ॥६॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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