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________________ ( ४२६ ) प्रन्थकार की प्रशस्ति इति सफलतार्किकचक्रचूड़ामणिचुम्बितचरणस्य, पंचपंचाशन्महावादिषिजयोपार्जितकीर्तिमन्दाकिनीपविभिनत्रिभुवनस्य, परमतपश्चरणरत्नोदन्वतः श्रीमन्नेमिदेवभगवता प्रियशिष्येण वादीन्द्रकानानलश्रीमन्महेन्द्रदेव भट्टारकानुजेन, स्यावादावलसिंह-तार्किकचक्रवर्तिवाडीभपंचानन-बाकस्लोलपयोनिधिकषिकुलरामप्रभृतिप्रशस्तिप्रशस्तानवारण, षण्ापतिप्रकरणयक्तिचिन्तामणिसूत्रमहेन्द्रमातलिसंजय पशोधरमहाराजचरितमहाशास्त्रवेधसा श्रीसोमदेवसूरिणा विरचित (नातिवाक्यामृतं) समाप्तमिति । अर्थ- समस्त साकिन्समूह में चूड़ामणि-शिरोरत्न (श्रेष्ठ), विद्वानों द्वारा पूजे गये हैं परकमल जिनके, पचपन महावादियों पर विजयश्री पानेसे प्राप्ति की हुई कीर्ति-रूपो स्वगंगासे पवित्र किये हैं तीन भुवनों को जिन्होंने एवं परम सपश्चरणरूप रनोंके रत्नाकर (समुद्र) ऐसे श्रीमत्पूज्य नेमिक्षेत्र, उनके प्रिय शिष्य, 'वादीन्द्र कालानल' (बड़े २ वादियों के लिये प्रलयकालीन अग्नि के समान) उपाधि . विभूषित श्रीमान् महेन्द्र देव भट्टारकके अनुज, 'स्याद्वादाचलसिंह (स्याद्वादरूप विशाल पर्वतके सिंह) 'ताकिची ' 'वादामपंचानन' (वादीरूप हाथियोंके गर्वोन्मूलन करने के लिये सिंह सरश) 'वाक्क. क्लोजपयोनिधि' (सूक्ति-तरकों के समुद्र) 'कत्रिकुज़राज' इत्यादि प्रशस्तियाँ (उपाधियाँ) ही है प्रशस्त अलकार (आभूषण) जिनके तथा पराएकतिप्रकरण (६६ अध्याय बाला शास्त्र), युक्तिचिन्तामणि (दार्शनिक मन्थ), त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसं जल्प (धर्मारिपुरुषार्थत्रय-निरूपक नीतिशास्त्र) और यशोधरमहाराजचरित (यशस्तिलकचम्पू) इन महाशास्त्रोंके वृहस्पतिसमान रयिता श्रीमत्सोमदेवमूरि द्वारा रचा गया पह 'नीसिवाक्यामृत' समाप्त हुआ। अस्पेऽनुप्राहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोउपमुहासचिनचरिते श्रीसोमदेचे मयि । या सभेव तथापि दर्पदवावीविप्रगावामहस्तस्थापितगर्यपर्वतपविमेवर वान्तायते | सकलसमयतर्फे नापनक्कोऽसि बादी, न भवसि समयोक्ती इससिद्धान्तदेवः । न च पचनवितासे पूज्यपादोऽसि , पदसि कथमिदानों सोमदेवेन सार्थम् ।। २ । [दुर्जनांधिपकठोरकुटार स्त विचारससारः । सोमवेव इव राममि सूरिदिमनोरथभूरिः ॥३॥ संशोधित परिवर्तित पपॉन्वषोधबुधसिन्धुरसिंहनादे, चादितिपोरखमदुधरवाम्बिकाये। श्रीसोमदेव मुनिपे वनारसाजे, बागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति न पारकावे ॥ ४॥ 'छोटों के साथ अनुपह, बराबरी वालों के साथ सजनता और पूज्य महापुरुषों के साथ महान भादरका वर्वाव करना' यह उच्च व चित्र (आश्चर्यजनक) चरित्र वाले मुझ सोमदेवका सिद्धान्त है तथापि जो व्यक्ति अत्यधिक गर्व वृद्धिसे दुराग्रही होकर मुझसे पर्दा करता है-ऐट दिखाता है-उसके गवरूप पर्वतको भेदन करने के लिये मेरे बचन वज-समान व काल-तुल्य माचरण करते है ।।।। हे वाद-विवाद करने वाले वादी न तोल समस्त दर्शनशास्त्रों पर सके करने के लिये अकल देवके समान है, न जैन सिद्धान्त निरूपण करने के लिये इससिद्धान्त देव है भोर न व्याकरण में पूज्यपावके समान चमका पारदर्शी है, फिर इस समय पर सोमदेव सूरिके साथ किस विरते पर बात करने तत्पर हुश्रा है ? 1 2 || श्री सोमदेव गलाके ममान गुण विपिस है, क्योंकि वे दुर्जनरूप चौक
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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