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________________ नीतिवाक्यामृत विजिगीषु को, जिसके हाथ में राजमुद्रा नहीं दी गई हो ऐसे अज्ञात वा अपरीक्षित (जिसके निदा सब गन्तव्य स्थान एवं उद्देश्य आदि की जांच पड़ताल नहीं की गई हो ) व्यक्ति को अपने दुर्ग में प्रथि नहीं होने देना चाहिये और न दुर्ग से बाहिर निकलने देना चाहिये ||७|| २६२ ***** शुका ने भी कहा है कि 'जिसके शासनकाल में दुर्ग में राजमुद्रा-विहीन व अपरीक्षित पु प्रविष्ट हो जाते है अथवा वहां से बाहिर निकल आते हैं, उसका दुर्ग नष्ट हो जाता है ||१|| " इतिहास में लिखा है कि हुए देश के नरेश ने अपने सैनिकों को विक्रय योग्य वस्तुओं को भार करने वाले व्यापारियों के वेश में दुर्ग में प्रविद्ध कराया और उनके द्वारा। दुर्ग के स्वामी को मरवाकर चिक कूट देशपर अपना अधिकार कर लिया || इतिहास बताता है कि किसी शत्रु राजा ने कांची नरेश की सेवा के बहाने भेजे हुए शिकार खेलने में प्रवीण होने से खड़वारण में अभ्यस्त सैनिकों को उसके देश में भेजा; जिन्होंने युग में प्रविष्ट होकर भद्रनाम के राजा को मारकर अपने स्वामी को कांची देश का अधिपति बनाया ॥६॥ जैमिनि विद्वान ने कहा है कि 'जो राजा अपने देश में प्रविष्ट हुए सेवकों पर विश्वास करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाया है ||२१|| इवि दुर्गेसमुद्देश | २१ कोश - समुद्देश की शब्द की व्याख्या, एस के गुण व उसके विषय में राजकर्तव्य - यो विपदि सम्पदि च स्वामिनतंत्राभ्युदयं कोशयतीति कोशः ॥ १ ॥ सातिशयहिरएपरजतप्रायो व्यावहारिकनायकबहुलो महापदि व्ययसइश्वेति कोशगुणाः ||२|| कोशं वर्धयन्तुनमर्थमुपयुञ्जीत ॥३॥ अर्थ- ओ विपत्ति और संपत्ति के समय राजा के तंत्र ( हाथी, घोड़े, रथ और प्यादे सुरत सेना ), को वृद्धि करता है एवं उस को सुसंगठित करने के लिये धन-वृद्धि करता है, उसे कोरा (खाना) कहते है ॥१० शुक्र विद्वान ने भी कोश शब्द की यहो व्याख्या की है ॥१॥ 1 याच कः प्रविशन्ति नरा पत्र दुर्ग मुद्राबिबर्जिताः । अग्रदा वित्सरन्ति स्म युगे तस्य नश्यति ||१|| जैमिनिः स्ववेशजेषु भृत्येषु विश्वास यो मृयो प्रजेत् । स द्वषं मारामामावि नं मिमिरिस्वद्मजश्रीत् ||1|| ३ शुक्रः भ्रापत्काले च सम्प्राप्ते सम्पत्कान्ने विशेषतः । तन्त्रं विवध मते राक्षां स कोशः परिकोर्तितः ||१||
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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