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युद्ध समुहश
रचनाया हेतवः ॥ ८६ ॥ साधुरचिताऽपि व्यूहस्तावत्तिष्ठति यावत्र परबलदर्शनं ।। ८७ ।। न हि शास्त्रशिक्षाक्रमेण योद्धव्यं किन्तु परमहाराभिप्रायेण ॥ ८८व्यसनप प्रमादेश रा परपुरे सन्यप्रेष्यणमवस्कन्दः ||८६ ॥ अन्याभिमुखप्रयाणकमुपक्रम्यान्यापघातकरणं कटयुद्ध ॥६० ॥ विषविषमपुरुषापनिपदवाग्योगोपजापैः परोपघातानुष्ठान तूप्णीदण्डः ॥ ३१॥ एक बलस्याधिकतं न कुयात , भेदापरायनेक समय अनाति महान्तमन ।। ६२ ||
अर्थ-अनेक प्रकार का सभ्य (हाथी व घोड़े आदि) ,बुद्धि, विजिगीषु के ग्रहों की अनुकुन्ना, शत्र द्वारा की जाने वाली लड़ाई का उद्योग और सैन्य मडल का विस्तार ये स'गठित संन्य राह (विन्यास) की रचना के कारण हैं अथात् उक्त कारण सामग्री के सन्निधान से विजिगी द्वारा
यह की रचना की जाती है ।।८६ अच्छी तरह से रचा हुआ सन्य-म्यूह तब तक ठीक व स्थिर-काल रहा, जब तक कि इसके द्वारा शत्रु-संन्य दृष्टिगोचर नहीं हुमा। अभिप्राय यह है कि शासना दिखाई पड़ने पर विजिगीपु के वीर सोनिक अपना व्यह छोड़ कर शत्र की सैन्य में प्रविष्ट होकर उत्तम भयङ्कर युद्ध करने मिल जाते हैं ।
शुक्र' ने भीसभ्य फी व्यूह रचना के विषय में इसी प्रकार का उल्लेख किया है।॥ १ ॥
विजिगीष के पीर सैनिकों को युद्ध शास्त्र की शिक्षानुसार युद्ध न कर शत्रु द्वारा किए जाने वाले प्रहारों के अभिप्राय से-उन्हें ध्यान में रखते हुए-युखू करना चाहिए ।।८।।
शुक्र' ने भी लड़ाई करने का यही तरीका बताया है।॥१॥
जब शत्र मद्यपान आदि व्यसनों व आलस्म में फसा हुआ हो , तब विजिगोधुको अपना संन्य एसके नगर में भेजकर प प्रविष्ट करके उसके द्वारा शत्रु नगर का घेरा बालना चाहिए ।। ||
शुक्र' ने भी विजिगीष को फौज के प्रवेशका यही अवसर बताया है॥१॥
इसरे शत्रु पर चदाई प्रकट करके वहां से अपना सैन्य लौटा कर युद्ध द्वारा जो अन्य शत्र का घत किया जाता है उसे कूट युद्ध कहते हैं ॥ ६॥
शुक्र मे भी कूट युद्ध का इसी प्रकार लक्षण किया है।॥१॥
विध-प्रदान, घातक पुरुषों को भेजना, एकान्त में चुपचाप स्वयं शत्रु के पास जाना व भेदनोवि इन उपायों द्वारा जो शत्रु का पात किया जाता है, उसे 'नूष्णी युद्ध, कहते हैं ।। ६१ ॥
गुरु ने भी युक्त नपायों द्वारा किए जाने वाले शत्र वध को तूष्णी युद्ध कड़ा है ॥१॥ तथा शुक्रा--स्यूहस्य सपना तावसिष्ठति शास्त्रनिर्मिता । यावदन्पसं नैव दृष्टिगोचरमागतं ॥ १ ॥ • तथा व शुक्रा-शिक्षाक्रमेण नो युद्ध कर्तव्य रणसंकुले । प्रहारान् प्रेक्ष्य शत्रूणां तदह युद्धमाचरेत् ।। १ ।। ३ तथा व शुक-यसने का प्रमादे पा संसा: स्यात् पर यदि । तदायस्कन्ददानं च कर्तभूतिमिहता ।। || ५ तथा च शुकः--अम्माभिमबमागंण गावा किंचित् प्रमाणक न्यावुरफ घातः क्रियते सदैव कुटिलाध्यः ॥ १ ॥ ५ तथा च गुरु:-विपदानेन योऽयम्य हस्तेन क्रियते वधः । अभिचारस्कृत्येन रिपो मीनाहकोहि सः ॥ 52