Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 429
________________ युस समुददेश ४२५ ... ..... वशिष्ठ' ने भी इसी प्रकार वीर सैनिकों की प्रशंसा की है ।।१।। जड़ाई में अपने स्वामी को छोड़कर युद्ध भूमि से भाग जाने वाले सैनिक का ऐहौकिक व पारनोकिक कल्याण नही होता। अर्थान-रणेऽपसायन-युद्ध से न भागना-इस क्षात्र धर्म का त्याग करने से उसकी इस लोक में अपकीति व परलोक में दुर्गति होती है ॥४॥ भागुरि ने भी युद्ध से पर। मुख होने वाले सनिक के विषय में इसी प्रकार कहा है ।।१।। जब विजिगीषु, शत्रु से युद्ध करने के लिये प्रस्थान करे, उस समय उसका सेनाध्यक्ष माधी फौज सदा तैयार-शस्त्रानिस सुसज्जित रक्खे, इसके पश्चात् ही विजिगीषु शत्र पर चढ़ाई करे और जब वह शत्रु-संन्य के प्रावास ( निवासस्थान) की ओर प्रस्थान करने में प्रयत्नशील होवे, तब उसके समीप चारों तरफ फौज का पहरा रहे एवं उसके पीछे डेरे में भी फोग मौजूद रहनी चाहिये । इसका कारण यह है कि विजिगीषु कितना ही शक्तिशाली हो, परन्तु वह पढ़ाई के समय व्याकुल हो जाता है और शूरवीर कोग उस पर प्रहार कर देते हैं ।।६।। शुक' ने भो शत्रुभूमि के प्रति प्रस्थान करनेवाले राजापोंको सदा सावधान रहना वाया है। ___ जब विजिगीषु दूरवर्ती हो और शत्रकी फौज मसको ओर आ रही हो, एस अवसर पर जंगल में रहने वाले उसके गुप्तचरों को चाहिए कि वे धुषां करने, भाग जलाने, धूल उड़ाने, अथवा भेसे के सोग फूकने का मन करने के बहाने उसे शत्रु की फौज पाने का बोध करावें ताकि उनका स्वामी साबधान हो जाये ॥७॥ गुरु ने भी पर्वतों पर रहने वाले गुप्तचरों का बही कर्तव्य बताया है ।। १ ॥ विजिगीषु शत्रु के देश में पहुँच कर अपनी फौज का पड़ाव ऐसे स्थान में सले जे कि मनुष्य की ऊंचाई माफक ऊंचा हो, जिसमें थोडे भावमियों का प्रवेश, घूमना तथा निकास हो जिसके भागे विशाल सभामंडप के लिये पर्याप्त स्थान हो, इसके मध्य में स्वयं ठहर कर सममें अपनी सेना को ठहरावे । सर्वसाधारण के माने जाने योग्य स्थान में सैन्य का पड़ाव डालने व स्वयं ठहरने से विजिगीष अपनी प्रावन नही कर सकता ॥15॥ शुक' ने भी सन्म के पड़ाव के बारे में यही कहा है ।।।। विजिगीषु पैदन, पालकी भवया घोड़े पर चढ़ा हुमा शत्र की भूमि में प्रविष्ट न होवे, क्योंकि ऐसा करने से जब इसे मचानक शत्रु कृत उपद्रवों का भय प्राप्त होगा, तब वह अन से अपनी सा नहीं कर सकता ॥ १० ॥ वाशि:-सामिन पुरतः संम्मे हम्पारमान व सेवकः । परप्रमाणानि यागानि ताम्बानोति कलानि च ॥1॥ २तथा च भागुहि-पः स्वामिन परिवम्ब युद्ध पाति परामुखः । इडाकीर्ति पर प्राप्य रतोऽपि मरबजेत् ... तथा शुक्र:-परभूमिप्रतिष्ठानां नृपतीको शुभं भवेत् । भावाप्रमाणे च यतः रात्र: परीच्यते ॥1॥ ४ तथा च गुरु:-अभी दारिपते देरी बदागरकृति सन्निधौ । धूमादिभिनिवेश: स रैरचारराषसंभवः ।।१।। र तपाप शुक-परदेश पो यः स्वार सर्वसाधारणं नृपः । मास्थ कुरुते भूदो पारास निहन्यते ॥1

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