Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 435
________________ प्रकीर्णक समहंदेश देना – सन्तान-संरक्षण- आदि उत्तरदायित्व पूर्ण कार्यों में स्वतंत्रता देते हुए भी अपने अधीन रखना, ४ नीति एवं सदाचार की शिक्षा देना और माता के समान चिन्ह बाले स्त्रीजनोद्वारा रोकरखना - अभ्यत्रन जाने देना ( उसकी चौकसी रखना ) ।। २३ ।। वेश्याएं धोबीको शिक्षा, कुत्तोके खप्पर समान सर्वसाधारण व घृणास्पद होती हैं, उनमें कौन कुलीन पुरुष अनुराग करेगा ? कोई नहीं ।। ३३ ।। वेश्याओं के निम्नप्रकार परम्परा से चले आने वाले कार्य है --१-दान करने में 'उनका भाग्य फूटा रहता है - जो कभी भी दान करना नहीं जानती, २-अनुरक पुरुषों द्वारा सम्मानित होने पर भी दूसरे पुरुषों से काम सेवन कराना, ३- शासक्त पुरुषोंका तिरस्कार वा घात करना, ४ अनुरक पुरुषोंद्वारा महाम् उपकार किये जानेपर भी उनके प्रति अपनापन प्रगट न करना एवं ५-अनुरक्त पुरुषांके साथ बहुत समग्रतक प्रेम संबंध रहने पर भी उनके द्वारा छोड़ दी जाने पर अन्य पुरुषों से रवि कराना ॥ ३४ ॥ इति विवाह समुद्देश | .... -94 ३२ - प्रकीर्णक समुद्देश । W ४११ SEE कोक व राजा का लक्षण, विरक्त एवं अनुरक्त के चिन्ह, काव्य के गुण-दोष, कवियों के भेद तथा लाभ, गीत, वाद्य तथा नृत्य-गुण समुद्र इव प्रकीर्णक सूक्तरत्नविन्यास निबन्धनं प्रकीर्णकं ॥ १ ॥ वर्णपदवाक्यप्रमाण प्रयोगनिध्यातमतिः सुमुखः सुव्यको मधुराम्भोरध्वनिः प्रगल्भः प्रतिभावान् सम्पमूहापोहानधारणगमकशक्तिसम्पन्नः संप्रज्ञात समस्तलिपि भाषावर्णाश्रमसमय स्वपर व्यवहारस्थितिराशुलेखन वाचन समर्थश्चेति सान्धिविग्रहिकगुणाः || २ || कथाव्यवच्छेदो व्यात्तत्वं मुखे वैरस्यमन वेचणं स्थानत्यागः साध्याचरितेपि दोषोद्भावनं विज्ञतेच मौनमतमाकालयापनमदर्शनं वृथाभ्युपगमश्चेति विरक्त लगानि ||३|| दूरादेवेक्षणं, सुखप्रसादः संप्रश्नेवादरः प्रियेषु वस्तुषुस्मरणं, परांचे गुणग्रहणं तत्परिवारस्य सदानुवृत्तिरित्यनुस्ववलिंगानि ॥ ४ ॥ श्रुतिसुखत्वमपूर्वाविरुद्धार्थातिशययुक्तत्वम्रुभयालंकार सम्पन्नत्वमन्यूनाधिकवचनस्त्रमतिव्यक्तान्ययत्वमिति काव्यस्य गुणाः ॥५॥ अतिपरुषवचनविन्यासत्वमनन्त्रितगतार्थत्वं दुर्बोधानुपपन्नपदापन्यास मयथ । थै यतिविन्यासत्यमभिधानाभिधे पशून्पत्वमिति काव्यस्य दोषाः || ६ || वचनकविरथंकविरुमय कविश्चित्रकविर्वर्णकविदु' 'करक विरोचकीसतुषाभ्यवहारी चेत्यष्ट। कवयः ॥ ७ ॥ मनःप्रसादः कलासुकौशलं सुखेन चतुविषयान्पुर सिसंसार' च यश इति कवि संग्रहस्य फलं ॥ ८ ॥ श्रालवशुद्धिर्माधुर्यातिशयः प्रयोग सौन्दर्यम तीवमसूयतास्थानकम्पितकुरितादिमानो रागान्तसंक्रान्तिः परिगृहीतराग निर्वाहो हृदयग्राहिता चेति गीतस्य गुणाः ॥ ६ ॥ समस्व ताला :

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