Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 436
________________ नोतिवाक्यामृत नुयायित्वं गेयामिनेयानुगतत्वं एलक्षणत्वं प्रव्यक्तयतिप्रयोगत्वं श्रुतिसुखावहत्व' चेति वाद्यगुणाः ॥ १० ॥ दृष्टिहस्तपादक्रियासु समसमायोगः संगीतकानुगतत्व मुंश्लिष्टललितामिनयांगहारप्रयोगमावो सर भावत्तिलावएपभाव इति नृत्यगुणाः ॥११॥ भर्य-जो समुद्र के समान फैले हुए सुभाषित-रूप रस्नों की रचना का स्थान है, उसे 'प्रकीक' कहते हैं। मास-जिस प्रकार समद्र में फैली हुई प्रचुर रत्नराशि बसमान होती है, उसी प्रकार प्रकीर्णक काम्य समुद्र में भी फैली हसुभाषित ग्ल राशि पाई जाती है ॥१॥ वयो पद, वाक्य और शास्त्र इन विषयों में परिपक्व है बुद्धि जिसकी, स्पष्ट व सार्थक बोलने बाला, मधुर व गम्भीर है नाणो जिमको, चतुर, प्रतिभाशाली (तेजस्वी), अपने हदय में योग्य-अयोग्य के तान के भार माने ही शासित हे सम्पन्न, समस्त देशों की लिपि, भाषा तथा पारवणे (प्राणादिक) व चार श्राश्रमों (मधारी आदि) के शास्त्र का वेत्ता, सम्पूर्ण स्व और पर का व्यवहार का जानकार तथा शीघ्र लिखने व बाँपने की कला में प्रवीण ये राजा के गुण हैं । अर्थात् जग गुणों से भलंकृत पुरुष राजा होने लायक है ॥ २॥ जो कथा को ध्यान पूर्वक न सुने व उसे सनता हुआ भी व्याकुल हो जाय, जिसकी मुखाकृति उस समय म्लान हो जाय, , पास कही जाने पर जो वक्ता के सामने दृष्टिपात न करे, जिस स्थान पर बैठा हो वहाँ से बठकर दूसरी जगह चना जाय वक्ता द्वारा अछे काय किये जाने पर भी इसे दोषी बताये, समझाने पर भी जो मौन धारण कर ले कुछ भी उचर न देवे, जो स्वयं क्षमा (वक्ता की बात को सहन करने की शक्ति) न होने के कारण अपना काम सेप करता हो-निरर्थक समय वितावा हो, जो वक्ता को अपना मुख न दिखाये और अपने वायदा को झठा करता हो ये कथा से या अपन से विरक्स रहने वाले मनुष्य के चिन्ह हैं। अर्थात्-उक्त चिन्हों से विरक्त की परीक्षा करनी चाहिये॥३॥ अपने को दूर से माता हुआ देखकर जिसका मुख कमल विकसित होजाय कुछ प्रश्न किये जाने पर जो अपना सन्मान करे अपने द्वारा पये में की हुई अभीष्ट वस्तुओं (उपकारमादि) का स्मरण करने वाला (सज्ञ) परोक्ष में गुणकीर्तन करने वाला व अपने मित्र के) परिवार से सदा लेह-वृत्ति धारण करने वाला ये अपने से अनुरक्त (अनुराग करने पामे) पुरुष के चिना हैं । अर्थात् नैतिक पुरुष उक्त लक्षणों से युक्त पुरुष को अपने में अनुरक्त समझे ॥४॥ श्रण करने से भोगिय को प्रिय लगने वाला अपूर्व (नवीन) व विरोषादि दोष शन्य (निदोष) अर्थ का निरूपणा करने के कारण अतिशय युक्त (श्रेष्ठ) शब्दामहार-अनुपास आदि और अर्थालंकार (रुपमा उत्यक्षा-प्रभृति) से व्याप्त, हीन अधिक वचनोंसे रहित और जिसका भन्वय अति स्पष्ट हो-जो दूरान्वयो न हो ये काम्य के गुण है। अर्थात् उक्त गुण-युक्त काव्य उत्तम माना गय। है।५ ।। जिसमें भूति-कटु वचन (भोत्र को अप्रिय लगने वाले कठोर) पदोंकी रचना व अप्रसंगत बर्ष पापा जावे, दुर्बोध ( कठिन ) एवं अयोग्य शब्दों की रचना से युक्त, छन्द-भ्रष्ट होने के कारण जिसमें यथार्थ यतिविम्यास (विभाव की रचना ) न हो, जिसकी पद-रचना कोशविनख हो, जिसमें स्वचिकपित (मन गढन्त) माम्ब (असभ्य) पद रचना वर्तमान हो, ये काम्प के दोष हैं। कवि पाठ

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