Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 438
________________ नीतिवाक्यामृत सौजन्यं प्रियभाषणं वा साधुता च यावन्नार्थायाप्तिः || १७ || तदसत्यमयि नासत्यं यत्र न सम्भाष्यार्थहानिः || १८ || प्राणबधे नास्ति कश्चिदसत्यवादः || १६ | अर्थाय मातरमपि लोको हिनस्ति किं पुनरसत्यं न भाषते || २० || अर्थ- जो शिष्ट पुरुष दुःखी होने पर भी किसी के सामने दुवचन ( कटु शब्द ) नहीं कहता, वही महापुरुष है || १२ || जिसके पास आकर याचक लोग कृतार्थ ( संतुष्ट ) नहीं होतं, वह गृहस्थ निन्ध है ॥ १५ ॥ ४१४ शुक्र व गुरु ने उक्त प्रकार महापुरुष का एवं निर्धन गृहस्थ को भी आये हुये याचकों के लिये असल, जमीन, पानी और मीठी वाणी देने का उल्लेख किया है ।। १२ ।। तत्कालीन क्षणिक सुख चाहने वाले पुरुष धनाढ्यों से ऋण लेकर उस धन से दान-पुण्यादि धर्म, सांसारिक सुखों (विवाह आदि) का उपभोग और राजा का सन्मान एवं व्यापार करते हैं, परन्तु भविष्य में स्थायी सुख चाहने वाले नहीं ॥ १४ ॥ दाता याचकों के लिये अपने मौजूद धनादि वस्तु देवे गैरमौजूद नहीं । अर्थात् उसे कजा लेकर दान नहीं करना चाहिये ।। १५ ।। I ग ने भी एक दानों विषयों का इसी प्रकार समर्थन किया है ।। १-२ | कर्जा देने वाले धनाढ्य पुरुष को निम्न प्रकार कटुफल भोगने पड़ते हैं । १-सबसे पहला निकट फळ परोपारित (ऋ लेने वाले की सेवा सुश्रूषा करना ), २ - कलह ( धन प्राप्ति न होने से कर्जा लेने वाले के साथ लड़ाई झगड़ा होना ), ३- तिरस्कार ( ऋण लेने वाले के द्वारा अम्मानित होना ), ४ असर पड़ने पर धन न सिजना | निष्कर्ष - किसी को ऋण रूप में धन देना उचित नहीं ॥ २६ ॥ धन के साथ तथा तक स्नेह, प्रिथ मात्र सज्जनता प्रकट करता है, जब तक कि उसे उससे धन प्राप्ति नहीं हुई। अर्थान् धन प्राप्त हो जाने पर वह उसके साथ उक्त शिघ्र व्यवहार ( स्नेहादिक ) नहीं करता || १७ ॥ ५ * एवं शुक्र ने भी ऋण देने से हानि व ऋया लेने वाले के बारे में यही कहा है ॥१-२॥ बद्द वचन असत्य होनेपर भी सत्य नहीं माना जासकता, जिससे सम्भावना किये हुये इष्ट प्रयोजन (प्राण-रक्षा) आदि की क्षति नहीं होती- उसकी सिद्धि होती है, क्योंकि बक्ता के वचनों में सत्यता वा अस स्वता का निर्णय लौकिक प्रमाण – किसी के कहने मात्र से नहीं किया जा सकता, किन्तु नैतिक विचार द्वारा ही किया जासकता है, अतः गुरुतर इट प्रयोजन की सिद्धि के अभिप्राय से कहे हुये मिथ्या वचन १ तथा च शुक:- दुर्वाक्यं नैव यो पार्थं कुपितोऽपि सन् । स महत्वमवाप्नोति समस्ते धरणीतले ॥ १ ॥ २ तथा च गुरुः- तृयामि भूमिरुश्कं वाचा चैव तु सूनृता । दरि रपि दातव्यं समामस्य चार्थिनः ॥ १ ॥ ३ तथा गर्ग :- धर्मकृत्यं यप्राश्या सुखं सेवांवर पर ताeात्विकविनिर्दिष्ट समस्य न चापर |] १ कृष्णापि वक्ष्लभः । कुटुम्ब पीते बेम तस्य भावस्य भाग्भवेत् ॥ २ ॥ त्रयो दोषाः प्रकीर्तिताः । स्थानिय सेवा युद्धं परिभव १ ॥ यो क्या मा र साच अत्रि २ तथा च शुकात वत्स्नेहस्य बन्धोऽपि ततः पश्चात साधुता । ऋणकस्य भवेथावणस्य गृह्णाति हो धनम् ॥ १ ॥

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