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नीसिवाक्यामृत ...................................... ..........................
अर्थ-पूर्व कर्मानुसार मनुष्यों को प्रशस्त कलाम, सत्य की उपासना व शिवाह संबन्ध प्राप्त होता है, परन्तु विवाह सम्बन्ध हो जाने पर भी दम्पति का निर्वाह उनके भाग्य को अनुकूलता के अधीन है ॥२१॥ काम- पीड़ित पुरूष रति ( कान सेपन के सर पर कोई वचन ( मत्य व झूठ) बाकी नहीं रखता, जिसे वह अपनी प्रियनमा (स्त्री) से नहीं बोलता-वह सभी प्रकार के सत्य असत्य वचन बोलता है, परन्तु उसके वे वचन प्रामाणिक नहीं होते अभिप्राय यह है कि विषयाभिलाषी व साजाति सन्तान के इछुक पुरुष को संतकाल के समय तात्कालिक पिय । मधुर ) वचनों द्वारा अपनी प्रिया को अनुरक्त करना चाहिये । २२॥
गुरु ' व गजपुत्र ' ने भी विद्या व विवाह आदि को भाग्याधीन व काम-पीड़ित परूष का रविकालोन उक्त कर्तव्य बताया है ।। १-२ ।।
दम्पतियों में सभी तक पारस्परिक प्रेम रहता है, जब तक कि उनमें प्रतिकूमका, कलह और विषयोपभोग संबन्धी कुटिलता नहीं पाई जाती ॥ २३ ।। जिस विजिगीषु के पास थोड़े समय तक टिकने वानी भर सभ्य वर्तमान है वह युद्ध में शत्र से विजयश्री किस प्रकार प्राप्त कर कर सकता है? नहीं कर सकता। इसी प्रकार स्त्रियों का कल्याण ( उपकार) करने से भी मनुष्य अपनी प्राण-रक्षा नहीं कर सकता अतः युद्ध में विजयश्री के लाभार्थ प्रचुर सैन्य शक्ति होनी चाहिये तथा विवेकी परुष स्त्रियों के प्रति किये हुये उपकार को प्राणा-रक्षा का साधन न समझे ॥२४॥
राजपुत्र व शुकने भी दाम्पत्यप्रेम व अल्प सैन्य वाले विजिगीपु के विषय में उक्त बात का समर्थन किया है।। १-२ ॥
जब तक लोग दूसरों के द्वारा कृतार्थ (अपनी प्रोजन-सिद्वि करने वाले नहीं होते, वभी तक सभी लोग सभी के साथ विनय शीलसा दिग्याते हैं, परन्तु प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर कौन किसे छत। है? कोई नहीं पूछता ॥ २५ || अशुभ करने वाले (विरोधी) व्यक्ति से समय पर न मिलना ही उसके शान्त करने का उपाय है । अर्थान जब शव सा करने वाला मनुष्य समय का बल्लांघन और मिष्ट्र वनों द्वारा पंचना किया जाता है, तभी वह शान्त होता है, अन्यथा नहीं ॥२६॥
व्यास व नारद ने भी कार्थ व पहुभ करने वाले पदार्थ के विषयमें उक्तबासकी पुष्टि की है
।। १-२|| जिस प्रकार बुभुक्षित (भूखे) को क्षमा की निवृत्ति सरने के लिये पके हुये मान से प्रयोजन बसा है, उसी प्रकार काम रूसो अग्नि से संतन हुये पुरुष को की शारोरिक प्राताप (मैथुनेच्छा)को
तथा च गुरु:--विद्यापस्यं विवाहच दंपरयोरगामिना रतिः । पूर्वकमानुसारेण मर्य सम्पद्यते सुखं ॥१॥
या र राजपुत्रः-नाम्पचिन्ता भोमारों पुरुष: कामपंडितः । यतो न रशयेशाचं नैवं गर्भ ददाति व ॥ तथा प राजपुत्रः-देवकाकोटिल्य दम्पत्यो यते यदा : तथा कोशविदेइंगत्वाभ्यामेव परस्परं ॥३॥ • नया स शुक:- नावन्मानं बलं यस्य भान्या सैन्यं करोति च । शनमिहीनसन्यः म लसायिरचा निपात्यते ॥ .. ५ नया र न्यासः-मस्व हि कृतार्थस्य मनिरन्या प्रवर्तते । तस्मात् सा देवकार्यम्य किमन्यः पोषित: विरैः ।। ५ नया व नारद-प्रशुमय पदारय भविष्याप प्रशान्नये। कालानिमण मुम्स्या प्रमोकान वियते ।।१।।