Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 441
________________ प्रकीर्णक समुद्देश * --. IPO GET शांत करने के लिये स्त्री से प्रयोजन रहता है, अन्य कोई प्रयोजन नहीं। इसलिये उनमें अनुराग (प्रेम) ब विराग (विरोध) करने से कोई लाभ नहीं । अर्थात् उनके साथ माध्यस्थ्य भाव रखे। क्योंकि उनमें विशेष अनुरक्ता आसक्त पुरुष धार्मिक ( दान-पुण्यादि ) व आर्थिक (व्यापार आदि ) कार्यों से विमुख होने के कारण अपनी धार्मिक व आर्थिक क्षति कर डालता है एवं उनसे विरोध रखने वाला काम पुरुषार्थ से वंचित रह जाता है, अतः स्त्रियों के प्रति माध्यस्थ्य भाव ही श्रेयस्कर है ॥ २० ॥ जबकि तिनकेसे भी मनुष्य का प्रयोजन ( दव-शुद्धि आदि सिद्ध होता है तब क्या हाथ पांव वाले मनुष्य से उसका प्रयोजन सिद्ध न होगा अवश्य सिद्ध होगा ? अतः उसे उत्तम, व अधम सभी के साथ मैत्री रखनी चाहिये एवं अधम पुरुष की अवा नहीं करनी चाहिये ॥ २८ ॥ मध्यम गौतम ' व विष्णुशर्मा ने भी उक्त दोनों बातों का समर्थन किया है ।। १०२ ॥ विजिगीषु अथवा विवेकी पुरुष किसी भी साधारण व्यक्ति के लेख ( पत्र ) की अवश ( तिरस्कार ) न करे क्योंकि राजा लोग लेख द्वारा ही शत्रु की चेष्टाका ज्ञान करते हैं, इसलिये ये लेखप्रधान कहे जाते हैं एवं सन्धि, विमह व समस्त संसार के व्यापार की स्थिति का ज्ञान मो लेख द्वारा ही होता है ॥ २६ ॥ नीति के वेत्ता पुरुष पुष्पों द्वारा भी युद्ध करना नहीं चाहते, तब शम्त्र युद्ध किस प्रकार चाहेंगे ? नहीं चाहेंगे ॥ ३० ॥ गुरु व बिदुर * ने भी लेख व युद्ध के विषय में उक्त बात की पुष्टि की है ।। १-२ ।। 3 स्वामी और दाता का स्वरूप, राजा, परदेश, बन्धु-होन दरिद्र तथा वनाढ्य के विषय में, निकट विनाश वाले की बुद्धि, पुण्यवान, भाग्य की अनुकूलता, कर्मचाण्डाल एवं पुत्रों के भेद स प्रों बहून् बिभर्ति किमजु नतरोः फलसम्पदा या न भवति परेषामुपभोग्या ||३१|| मार्गपादप इव सत्यानी यः सहते सर्वेषां संबाध || ३२ || पर्वता इव राजानो दूरतः सुन्द रालोकाः || ३३ || वार्तारमणीयः सर्वोऽपि देशः || ३४ || भवनस्य बान्धवस्य च जनस्य मनुष्यवत्यपि भूमिर्भवति महाटवी ॥ ३५ ॥ श्रीमतो हारण्यान्यपि राजधानी ॥ ३६ ॥ सर्वस्याप्यासन्नविनाशस्य भवति प्रायेण मतिविपर्यस्ता ।। ३७ ।। पुण्यवतः पुरुषस्य न चिदप्यस्ति दौःस्थ्यं || ३८ || दैवानुकूलः कां सम्पदं न करोति विघटपति वा विपदं ॥ ३६॥ कःपिशुनः कृतघ्नो दीर्घरोष इति कर्मचाण्डालाः ||४०|| औग्स: चेत्रजोदसः कृत्रिमां १ तथा गौतम रामो विरागो का स्वीयां कार्यों विषयः । पक्कान्नमिव तापरच शान्वये स्याच्च सर्वदा ॥ १|| २ तया च विष्णुशर्मा ः— इन्तस्य निष्कोषणकेन नित्य कर्मस्य कण्डूयनकेन चापि । व्हेन कार्य भवतीश्वरायां किं पादयुक्तेन नरेया न स्वात् ॥ १ ॥ ३ तथा च गुरुः- लेखमुप्रो महीपाको लेना मुख्यं च चेष्टितं । दूरस्थस्यापि सेलो हि ४ तथा च विदुरः-पैरपि न योद्धयं किं पुनः निशितैः शरैः । उपावपतया ? पूर्व सरमाद्य द्धं समाचरेत् ॥ १ ॥ खोऽयो मादमम् ॥ १ ॥

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