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...................................... विवाह समुरा ।
क्रान्ता जन्मविष्यो भवति ॥ १८॥ धैर्य चातुर्यायसं हि कन्याविलम्भणं ॥ १६ ॥ समविभवाभिजनयारसमगोत्रयोश्च विवाइसम्बन्धः ॥२०॥ महतः पितुरश्चयोदम्पमत्रगणयति । अन्पस्प कन्या, पितुर्दावन्यान् महतावनायते ॥ २२ ॥ अन्यस्य महता सह संव्यवहारे महान् व्ययोऽपश्चायः ॥ २३ ॥ वर' वेश्यायाः परिग्रहो नाविशुद्धकन्याया परिग्रहः ॥ २४ ॥ वर जन्मनाशः कन्यायाः नाकुलीनेष्ववक्षेपः ॥ २५ ॥
अर्थ-वर-कन्या का पाणिग्रहण शिथिल हो जानेसे कन्याक्षर! वर तिरस्कृत किया जाता है॥१जनबर सजा के कारण अपनी नवा वधू के मुख की घोर दृष्टिपात नहीं करे और बधू पपने नेत्र वधाइती हुई टकटकी लगाकर उसके मुखकमल की मोर सनुष्ण दृष्टि से देखती रहे, तब यह प्रमण्ड (येशमें) हो जाती है ॥ १६ ॥
नारद व जैमिनि ने भी पाणिग्रहण की शिथिलता एवं नवा वधू की प्रचण्डता के विषय में यही बताया है ॥१॥ जो पर अपनी नवा (नई)वधू के साथ एक स्थान में शयन करताना लण्जा वश चुपचाप रहता है। अपना कर्तव्य पालन--(चतुरता पूर्वक संताप, हास्पादि) पतिधर्म का पालननहीं करवा ) उसे वह पशु समान मूर्ख समझती है ॥ १७॥ यदि वर चपनी नई बप के साथ जबर्दस्ती काम-क्रीड़ा करने वस्पर होता है, तो उसकी बधू जन्मपर्यन्त उससे तप करती रहती है॥१८॥ क्योंकि भवा बधू द्वारा प्राप्त होने वाला प्रणय ( प्रेम ) पर की धीरता व चतुराई के अधीन होता है। सारांश यह है कि यदि वर धीरताप चतुरता से अपनी नवा पधू के साथ प्रेम-पूर्ण दान-मानादि का बर्ताव करता है, तो उसे उसका प्रणय मिलता है, अन्यथा नहीं ॥ १८ ॥ समान ऐश्वर्य व कुटुम्ब-युक्त तथा विषम (भिन्न गोत्रवाले वर-कन्यामों में विवाह संबंध माना गया है॥२०॥क्योंकि ऐसा न होने पर जब धनाढ्य की कन्या दरिद्र पर प्राप्त करती है, सब वह अपने पिता के ऐश्वर्यसे उन्म शेकर अपने दरिष्ट्रपति को नीचा गिनने लगसी है। यति मिर्धन की कन्या धनाश्य पर के साथ ज्याही जाती है.तो यह.भपने पिता की दुर्बलता के कारण अपने धनाड्य पति द्वारा तिरस्कृत की जाती हैं॥२२॥ोटा (साधारण पैसे पासा) बरे (धनाय) के साथ विवाह संबंध प्रादि व्यवहार करता है,वोसमें उसका ज्यादा खर्च व प्रामदनी थोड़ी होती है॥३॥ किसी प्रकार वेश्या का बङ्गीकार करना अच्छा है, परन्तु भगत (ज्यभिचारिणी या असजातीय) कण्या के साथ विवाह करना उचित नहीं, क्योंकि इससे भविष्य में असज्जाति सन्तान उत्पन्न होने के कारण इसका मोसमार्ग बंद हो जाता है ॥ २४ ॥ न्या ---.-.. .-- ...... -. --- --- . ... इसके पश्चात् म.म. प्रतिमें श्रदारि समरेऽपि कि रूपजीविनः । एकस्मियकाः कुयु फलितेऽपि भुषिता: इस प्रकारका पपरूप पाठ विशेष पापा जाता है, जिसका अर्थ यह है कि जिसप्रकार किंक (टेट) फाशाली होनेपर भी उनसे शुक (तोते) बाम नहीं उठा सकते क्योंकि वे भूखे रहते हैं उसी प्रकार अनिल पव (सोभी) मनुष्य के धन से भी सेवकों का कोई खाम नहीं हो सकता। प्राकरविक अभिभाष यह है कि पचन
धनावच पिता के प्रचुर धन से कन्या नाम नहीं उठा सकती । । । -सम्पादक १ तथा च नारदः-शिधिलं पाणिग्रहणं स्पान् कन्यावस्योर्यदा। परिभूपते तदा भर्ता कान्तया सरमभावतः ॥ १॥ नामिनि:-मुम्ब नबीकने भनी वेदिमध्ये व्यवस्थितः । कम्पायाचीचमाणायाः प्रपरका मा भवता ।
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