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नीतिवाक्यामृत
कुलटाऽप्रसन्ना दुःखिसा कलहोधता परिजनोद्वासिन्यप्रियदर्शना दुर्भगेति नैतां वृणीति कन्याम् ॥ १४ ॥
अर्थ - जिसमें वर कन्या अपने माता पिता व बन्धुजनों को प्रगाया न मान कर ( उनकी उपेक्षा करके) पारस्परिक प्रेम-वश आपस में मिल जाते है- दाम्पत्य प्रेम कर लेते हैं वह 'गान्धर्व विव ॥ ३ ॥ जिस में कन्या के संरक्षक (पिता आदि ) लोभवश वर पक्ष से धनादि ले कर अयोग्य वर के लिये कन्या प्रदान करते हैं उसे 'बासुर विवाह' कहते हैं ॥ १० ॥ जिसमें मोती हुई व बेहोश कन्या का पहरा क्रिया जाता है, वह 'पैशाच विवाह' है ।। १२ ।। जिसमें कन्या बलात्कार पूर्वक ( जबरदस्ती ) लेजाई जाती है या अपहरण की जाती है, वह 'राक्षस विवाह' है ॥ १२ ॥
गुरु
' ने भी उक्त गांधर्व आदि विवाहों के जल निर्देश किये हैं ।। १ ।।
यदि वर-वधूकाम्पत्यप्रेम निर्दोष है तो उक्त चारों विवाह जघन्य श्रेणी के होनेपर भी न्हें अन्याय युक्त नहीं कहा जासकता ॥ १३ ॥
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यदि कन्या में निम्नलिखित दूषख बर्तमान हों, तो उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिये जिसकी आँखों की तारकायें उठी हुई व जंघाओं में रोम वर्तमान हों एवं उठ भाग अधिक पसल तथा कमर, नाभि, सदर और कुच कलश भई हों। जिसकी भुजाओं में अधिक नसें हांष्टगोचर हो और उस का आकार भी अशुभ प्रतीत हो। जिसके छालु, जिल्हा, व श्रेष्ठ र समान काले हों व दाँत पिरले विषम (छोटे बड़े हों। जिसके गजों में गड्ढे, चांले पोलो बंदर समान रंग वाली हो। जिसकी दोनों कटियां जुड़ी हुई, मस्तक जिसका ऊचा-नोचा और श्रोत्रों को कृसि मी व फेश मोटे, भूप रूक्ष हो । जो बहुत बड़ी व छोटी हो। जिसके कमर के पार्श्वभाग सम हो जो कुछ मौनीष भीलों के समान अङ्ग बाली हो । जो बर के बराबर आयु वाला या उससे बड़ी हो, जो पर के यहां से आये हुये दूत के समक्ष एकान्त में प्रकट होती हो। इसी प्रकार बीमार, रोती हुई, पत्रिका घात करने बाली, सोती हुई, क्षीण भायु वालो, अप्रसन्न, दुःखी, बाहर निकली हुई ( मर्यादा में न रहने वाली ) पभिचारिया, कलहप्रिय, कुटुम्बियों का जाड़ने वाली, कुरूप व जिसका भाग्य फूटा हो ॥ १४ ॥
पःकिम की शिथिलता का कुप्रभाव, नवा वधू की प्रववहता का कारण उसके द्वारा तिरस्कार और द्वेष का पात्र पुरुष एव उसके द्वारा प्राप्त होने योग्य प्रणय (प्रेम) का साधन तथा विवाह के योग्य गुण व उनके न होने से हानि-
शिथिले पाणिग्रहणे वरः कन्यया परिभूयते || १५ || मुखमपश्यतो वरस्यानमीलितलोचना कन्या भवति प्रचण्डा ॥ १६ ॥ सह शने रुष्णीं भवन् पशुक्रमभ्येत ॥ १७ ॥ बलादा१. तथा च गुरुः पितरौ समतिक्रम्यरम्य भसे पतिं । लानुरागा रंग गन्ध इति स्मृतः ॥ १ ॥ मूल्य सारं गृहोत्मा च पिता कन्यां च शोभतः सुरूपामय शुद्धाय विवाहश्यामः || २ || सुप्तां वाध प्रमता बोमा विवाहयेत् । कपोन पेशाको विवाहः परिकीर्तितः ॥ ३ ॥ हठाद्गुरुजनस्य च गृहाति यो वरो कम् स विवाहस्तु राचसः ॥ ४ ॥