Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 422
________________ नातिवाक्यामृत ....... जैमिनि' ने भी उक्त इवान्न द्वार। इसी बात को पुष्टि की है ॥ १।। विजिगोषु अत्यन्त पराजित किये हुये शत्र को पीड़ित न कर-फिर उस पर चढ़ाई न करे। अन्यथा मताया हश्रा शत्र अपने नाश की आशंका से पुनः पराक्रमशनि का प्रयोग करता है ।। ६६ ।। विदुर ने भी पराजित शत्र के बार में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥ शूरता ही है अद्वितीय धन जिसका ऐस शरबीर शम्र का जय विजिगीष दुरभिप्राय-वश मम्मान करना है तब वह शत्रु अपने मन में उसके प्रति वरेको पज के समान पत्यधिक कुपित्त हो जाता है अयोन जिस प्रकार दुरभिप्राय गश बलिदान करने के पर्व की जाने वाली वर को पजा मे छुपत करती है, उमी प्रकार दुर्गाभप्रायवश विजिगीषु द्वारा किये हुये मन्मान में भी शक्तिशाली शत्र की जोधाग्नि पर्व मे अत्यधिक उद्दीपित हो जाती है, अतः विनिर्ग:पु को शक्तिशाली शत्र का क.पर-पर्ण मन्मान करके अपने को स्वतरे में नहीं डालना चाहिये ।। ६३ || भागुनि ने भी सक्त दृप्रान्त द्वारा उन बात का समर्थन किया है।। ।। समानशक्ति व अधिक शक्ति वाले के साथ युद्ध में हानि, धम, लोभ व असुर विजयो राजा का स्वरूप, असुर-विजयो के आश्रय से हानि, श्रेष्ठ पुरुष के मन्निधान में लाभ, निहत्थे शत्र पर प्रहार करने वाले की कड़ी आलोचना, युद्ध भूमि में भागने वान रात्री के प्रति राजनानि व शत्र भून राजा के अन्य वन्दी राजाओं स भेट के विषय में समस्य समन सह विग्रह निश्चिनं मरणं जयं च मन्देहः, आम हि पात्रमामेनाभिहतमुभयतः क्षयं कराति ।। ६८ ।। ज्यायसा मह विग्रहा हस्तिना पदातियुद्धमिव ॥ ६६॥ म धर्मविजयी राजा या विधेयमात्रेण मन्तुष्टः प्राणार्थमानेषु न व्यभि वति ॥ ७० ॥ स लोमविजयी राजा यो द्रध्यण नीतिः प्राणाभिमानपु न व्यभिचानि ।। ७१॥ सोऽसुरविजयी यः प्राणायमानापघातन महीमभिलपति ॥ ७२ ।। असुरविजयिनः संश्रयः सूनागारे मृगप्रवेश इव ।। ७३ ।। यादृशम्नादृशो श यायिनः स्थायी बलवान यदि साधुचर: संचारः ॥ ७४ ।। --.-..-... -.-- --. .. -.... - . . ... -. -- तश - जैमिनि:- यपि स्याल लघुः सिंहस्तथापि द्विपमाहवं । पुर्व राजापि वीर्यात यो महारि इम्तिन्यपुः ।। ।। स्था च पिदुर:-भग्म: शत्रुनं गन्तव्यः पृहता पिजिगोपुणः । कदाचिस्ता पाति भरले कृतनिश्चयः ॥ ३ ॥ । तथा च भागरिः उपयाचितदानेन रछागेनापि प्रहष्यति । रिका पसवान् भूपः स्वल्पयामि तपेश्यया || ॥ A मु.मू. प्रतिमें इसके स्थान में भापकरोति ऐसा पाटान्सर है, जिसके कारण उक्त सत्रका इस प्रकार का भो भई होता जो विजिगीषु पराजित सत्र के शरणागत होमेपर सन्तुष्ट होता हुथा उसके प्राथा, धन और मानमर्वात को नह करने के दुरभिवाय से उसपर पुनः प्रहार नहीं करता बहो धर्मविजयी' कहा गया है। विमर्श-रक्त दोनों भब भुसंगप है, केवल पाक्य भेद इतना हो है कि पहले अर्थ में अपनी प्रसार और दूसरे अयमें पराजित शत्रुका अम्बानने वाले को 'यमविजयी कहा गया है।-सम्मारक

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