Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 392
________________ ३६८ नीतियाक्यामृत गर्ग ने नीतिपूर्ण सत्कार्य करने का उल्लेख करते हुये अनीति-यक्त असहकार्य करने का निषेध किया है ॥ १ ॥ भाग्य पुरुषाधं दोनों से ही प्राणियों की प्रयोजन सिद्धि होती है,एक से नहीं । सारांश यह है कि लोक में मनुष्यों को अनुकून भाग्य नीसि-पुर्ण पुरुषार्थ से इष्ट-सिद्धि और प्रतिकूल भाग्य व अनीतियत पुरुषार्थसे अनिष्टसिद्धि होती है, केवल भाग्य व पुरुषार्थ से नहीं ।। ५ ॥ समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि जो लोग अनुकूल व प्रतिक्त्त भाग्य द्वारा ही इष्ट व अनिष्ट पदार्थ की सिद्धि मानते हैं, उनके यहां जब उद्योग नगण्य है, तब नीति-पूर्ण पुरुषार्थ द्वारा अनुकून भाग्य और मनीति-धक्त पुरुषार्थ द्वारा प्रतिकूल भाग्य का सम्पादन नहीं हो सकेगा । इसी प्रकार भाग्य द्वारा पपरा भनुरण चालू रहने से सांसारिक व्याधियों के कारण कर्मों का नैतिक पुरुषार्थ द्वारा स न होने से सुमित्री की प्राप्ति होता जोतिषिव्यापारादि व धार्मिक दान शील-दि कार्यो को सिद्धि के लिये किया जाने वाला पुरुषार्थ (व्योग ) निरर्थक हो जायगा . इसी प्रकार जो लोग पुरुषार्थ से ही अय-सिद्धि मानते हैं, उनके यहां देव प्रामाण्य से पुलमा निष्फल नहीं होना चाहिये और समस्त प्राणियों का पुरुषार्थ सफज होना चाहिये । असः प्रसिद्धि में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों की उपयोगिता है, एक की नहीं । माथ में यह ध्यान देने योग्य है कि जिस समग मनुष्यों को इष्ट (सुखादि ) प पनिष्ट ( दुःखादि) पदार्थ विना उयोग किये अचानक प्राप्त होते हैं, वहाँ उनका अनुकूल व प्रतिकूल भाग्य हो कारण समझना चाहिये. वहाँ पुरुषार्थ गोल। इसी प्रकार पुरुषाप के जरिये होने वाले सुख दुखादि में नोति-मनीतिपूर्ण पुरुषार्थ कारण पर गौम है। अभिधाय यह है कि इष्ट अनिष्ट पदार्थ की सिद्धि में अनुकूल प्रतिफूज भाग्य व नीवि-मनोक्पिक्छ पुरुषार्थ इन दोनों की उपयोगिता है, केवल एक की नहीं ॥१३॥ गुरु' ने भी भाग्य व पुरुषार्थ वागअर्थ सिदि होने का निर्देश किया है ॥१॥ विवेकी मनुष्य को भाग्य के भरोसे ही बैठकर लौकिक (कपि व्यापागादि) था धार्मिक (दाम शीनादि) कार्यो में नीति-गणे पुरुषार्थ करना चाहिये ॥ ६॥ बल्लभदेव ने भी उद्योग वा प्रार्षिक लाभ का विवेचन करतेहुये भाग्य भरोसे न बेठार पुरुषार्थ करने का संकेत किया है॥१॥ पणच गर्गः -- नयो वायगयो वापि पाषेश प्रजापते । वस्माम्नः प्रकको भानपर विपरिता २ तथा समन्वभप्राचार्य:-गादेवार्थसिदिश्वर पौरुषसः कसा वैचवरदवियोगः पोहण पिफ वेत् ॥ पौरुषादेव सिरिसवेत् पौष देतः कथं । पौवादमो स्वात्समावि भदोपवावामिच्यानिट स्वदेवतः । बुटिपूर्णम्पपेशापामिनि स्पोवार १२॥ (मीमांसावा) या व गुरु-पथा मैकेन हस्तेम साखा संजायते मृणाम् । सपा मयते सिदिरेकरमा .. ३ तथा वसभ देष:-उबोगिनं पुरुषसिधमुपैति समीपन देवमितिकापुरमा बदन्ति । दैवं निहम कुरुपौलमात्मणवा; लेते बदिव सिपालिको दोषः ।

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