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नीतिवाक्यामृत
युद्धसाध्यं न कुर्यात् ॥२५॥ गुडादभिप्रेतसिद्धो को नाम विषं भुजीत १२६।। अल्पव्यय. भयात सर्थनाशं कराति मूखः ॥१७ा का नाम तधीः शुल्कमयागाण्डं परित्यजति ।२८॥
अर्थ-राज-चिन्द-युद्ध के बाजे-आदि-आगे करके पश्चात् गजा से अधिष्ठित प्रधान सैन्य सुसज्जित करके युद्ध के लिये तैयार करना वा स्थापित करना 'प्रतिग्रह' है, ऐसो प्रतिग्रह-सहित (विजिगीषु स अधिष्ठित ) प्रधान फौज युद्ध करने में अच्छी तरह उत्साह करती है जिसका फल विजय है ।।१५-२०।।
नारद' व शुक' ने भी उक्तप्रकार प्रतिपद का लक्षण-निर्देश करते हुए उमसे विजयश्री का लाभ बताया है ॥१॥
युद्धके अवसर पर सैन्य के पीछे दुर्ग व जल-सहित पृथ्वी रहने से उसे काफो जीवन-सहारा रहता है, क्योंकि पगाजत होने पर भी वह दुर्ग में प्रविष्ट होकर जल-प्राप्ति द्वारा पानी प्रागा रक्षा उसी प्रकार कर सकता है, जिस प्रकार नदो में बहने वाले मनुष्य को तटवर्वी पुरुषका दर्शन उसकी प्राण-रक्षा का साधन होता है ॥२१-२६॥
गुरु व जैमिनि ने भी उक्त स्टान्त देकर फौज के पोछे वर्तमान जल-सहित दुग भीम सैन्य को प्राणरका करने वाली बताई है ।।१-२॥
यद्ध के समय सेना को अन्न न मिलने पर भी यदि नल मिल जाय, तो वह अपनी प्राण-रक्षा कर सकती है ॥२॥
भारद्वाज ने भी उक्त बात की पुष्टि करते हुए प्राण-रक्षक जल को सैन्य के पीछे रखकर श्रद्ध करने को कहा है ॥११॥
जो निबेल राजा अपनो सेन्य-प्रादि शक्ति को न जानकर बलिष्ठ शत्रु से युद्ध करता है, उसका यह कायं मस्तक से पहाड़ तोड़ने के समान असम्भव व घातक है ॥२४॥
कौशिक ने भी अपनी ताकत को बिना जाने युद्ध करनेवाने के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
चिजिगीषु को मामनीति द्वारा लिस् होने वाला इष्ट प्रयोजन युद्ध द्वरा सिद्ध नहीं करता चाहिये : क्योंकि जब गु-भक्षण द्वारा ही अभिलषिन प्रयोजन ( आरोग्य-लाम ) होता है, तब कौन बुद्धिमान पुरुष विष-भक्षरण में प्रवृत्त होगा ? कोई नहीं ॥२५-६॥
तथा च नारदः- स्वामिन पुरतः कृश तत्सरसादुत्तमं बलं । ध्रियते युद्धकाले यः स प्रतिग्रहसज्ञितः ।।।।। २ तथा च शुक:-राजा पुर: रिफ्नो यत्र तत्पश्चात् मंस्थितं बलं । उत्साह कुले युद्ध ततः स्याद्विजये पदं ।। १ ।। ३ तथा गुरु:-जलयुगवती भूमिवस्य सैन्यस्य पृष्ठतः । पृष्ठदेशे भरतस्य तन्महाश्वासकारण ।।। ४ तथा च जैमिनिः-मोयमानोऽत्र यो नया तटस्थं बोयते नरं । हेतु मन्यते सोऽत्र जीवितस्थ द्वितात्मनः ॥1॥ २ तथा च भारद्वाज:-बन्नाभावादपि माया जीवितं न जल बिना । तस्माशुद्ध प्रस्तम्ब जलं कृत्वा र पृष्ठतः ॥ ५॥ ६ नया च कौशिकः-श्रामशक्तिमानानो युद्धं कुर्यादलीयमा । सास कोत्येव शिरमा गिरिभेदनम् ॥३॥