Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 413
________________ युद्ध समुरेश ....................... .... जब युद्ध-भूमि में विजिगीषु को बलिष्ठ शत्रु द्वारा दीपक की ज्वाला में पतंग की तरह अपना विनाश निश्चित हो जाय, तो उसे बिना सोचे विचारे वहां से हट जाना चाहिये ॥१५॥ गौतम' का उद्धरण भी इसी बात का समर्थन करता है॥१॥ जब मनुष्य दीर्घायु होता है, तब भाग्य उसे ऐसी शक्ति प्रदान करता है, जिससे वह निल होने पर भी बलिष्ठ शत्रु को मार डालता है ॥५ शुक्र' ने मा भाग्योदयसे दीर्घायु पुरुष के विषय में इसो प्रकार कहा है ॥१॥ सार हीन (शक्तिहीन व कर्तव्यविमुख ) अधिक फौजकी अपेक्षा सा-युक्त (शक्तिशाली व कतैव्य-परायण) थोड़ी सी सेना हो तो उत्तम है ।।१६। नारद ने भी अकाट्री तैयार थोड़ी भी फौजको उत्तम व बहुत सी डरपोकको नगण्य बताया है १. जब शत्र छत उपद्रव द्वारा विजिगी साहोन का किमडीम) सेना नष्ट होती है तब उसकी शक्तिशाली सेना भी नष्ट हो जाती है-अधीर हो जाती है अत: विपी जदुयल सैन्य न रखे ॥१७॥ कौशिक ने भी कायर सेना का भी विजिगीषु को वीर सेना के भङ्ग का कारण बताया है। राजा को कभी अकेले यद्ध में नहीं जाना चाहिये ॥ १८ ॥ गुरु' ने भी अर्जुन समान वीर राजा को अकेले ( सैन्य के विना) युद्ध में जाने से खतरा बताया है ॥ १। प्रतिमाह का स्वरूप व फल, युद्ध कालीन पृष्ट भूमि, जल-माहात्म्य, शक्तिशाली के साथ युद्ध हानि, राज-कर्त्तव्य ( सामनीति व दृष्टान्त ) एवं मुख का कार्य व उसका दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण राजव्यञ्जनं पुरस्कृत्य पश्चात्स्त्राम्यधिष्ठितस्य सारयलस्य निवेशनं प्रतिप्रहः ॥ १६ ॥ सप्रतिग्रहं बलं साधुयुद्धायोत्सहते ॥२०॥ पृष्ठतः सदुर्गजला भूमिबलस्य महानाश्रयः ॥२१॥ नद्या नीयमानस्य तटस्थपुरुषदर्शनमपि जीवितहेतुः॥२२॥ निरन्नमपि सप्राणमेव बलं याद जलं लभेत A ॥२३॥ आत्मशक्तिमविनायोत्सहाः शिरसा पर्वतभेदनमिव । २४॥ सामसायं तथा च गौतमा-बलवन्तं रिपु प्राप्य यो न नश्यति दुर्बत: । स नूनं नाशमभ्येति संगो दापमाश्रितः || २ तथा व शुक्र:-पुरुषस्य यदायुः स्पायलोऽपि सदा पा । हिनरित वेलोपेतं निजकर्मप्रभावतः ॥ ॥ । तथा नारदः- स्वल्पापि च श्रेष्ठ। नास्वल्पापि च कातरा । भूपतीनां च सर्वेषां युद्ध काले पताकिनी ॥ ॥ ४सथाकौशिक-कावराया च यो भंगो संग्रामे स्पान्महीपतेः । स हि भंग करोस्येव सर्वेषां नात्र संशयः ॥1॥ ५ सपा गुरु:-एकाकी यो प्रजेवाजा संग्रामे सेम्पवर्जितः । स नूनं मृत्युमाप्नोति पथपि म्याननंजय: ॥1॥ A इसके पश्यार मु. मू० प्रतिमें 'बलवता विग्रहीतस्य तसदापावापरिग्रहः स्वमंगाले सिखिमंदर प्रवेश का ऐसा विशेष पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि अब राजा बलिड प्रतिद्वन्दी के साथ युद्ध करता है तब उसके देश में रात्र के कुटुम्बी कोग प्रविष्ट हो जाते है। जिससे शत्र की शक्ति अधिक बढ़ जाती है इसलिये उनका घुमना मयूरों के समहमें माकों के प्रवेश समान हानिकारक होता है।।1।।

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