Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 416
________________ afaaiक्यामृत लयति मत्तमपि वारणं कुथिततृणसंघातः ||३७|| संहतै बिसतन्तुभिदिग्गजोऽपि नियम्यते ३८ अर्थ - जिस खर्च द्वारा अपने प्रचुर धन की रक्षा व महान् इष्ट प्रयोजन सिद्ध होता है क्या वह खर्च कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता । प्राकरणिक अभिप्राय यह है, कि बलिष्ट शत्रु से सम्धि करने में विजिगीषु द्वारा किया जाने वाला धनादि खर्च, खर्च नहीं कहा जाता, क्योंकि उससे उसके संचित धन की रक्षा व इष्ट प्रयोजन-सिद्धि होती है । २८ ॥ ३६२ शौनक' ने भी निर्बल राजा को बलिष्ठ शत्रु की धनादि द्वारा सेवा करके अपने प्रचुर धन की रक्षा करना बताया है ।। १ जिस प्रकार जल से समूचे भरे हुए तालाब की रक्षा का बहाव ( जन के निकास ) के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं, उसी प्रकार धनाय पुरुष की धन-रक्षा का धन के सिवाय और कोई दूसरा उपाय नहीं है ।। ३० ।। विष्णुशर्मा ने भी संचित धन की रक्षा का यही उपाय बताया है ॥ १ ॥ जो नियत मनुष्य बलिष्ठ शत्र द्वारा। प्रार्थना किये जाने पर भी उसे अज्ञान व लोभ-वश धन नहीं देता, उसकी समस्त धन-राशि बलिष्ठ द्वारा अपहरण कर ली जाती है ।।२१|| भागुरि ने भी उक्त प्रकार कहा है ||६|| शक्तिहीन राजा यदि किसी शक्तिशाली सीमाधिपति के लिये प्रयोजन-वश धन देने का इच्छुक हो, तो वह उसे विवाह आदि उत्सव के अवसर पर सम्मानपूर्वक अपने गृह बुलाकर किसी भी बद्दान द्रव्यप्रदान करे || ३ || शुक्र* ने भी उक्त बहाने से बलिष्ठ के लिये धन देने का संकेत किया है ॥ १ ॥ जो शक्ति-दीन राजा शक्तिशास्त्री प्रतिद्वन्दी सीमाविपति को किसी बहाने से धननहीं देखा उसे भविष्यकालीन अपरिमित प्रसंख्य धन-राशि देना व उसकी कठोर आज्ञा-पालन में बंधना पड़ता है। अर्थात्भविष्य में उसके द्वारा किये जाते वाले हमले का कटुक फल ( असख्य धनराशि का अपहरण व राष्ट्र का बद-आदि ) भोगना पड़ता है। अतः निर्भक्ष राजा लोभ को मिलाञ्जलि देकर शत्रभूत सीमाधिपति को धन-प्रदान द्वारा पहले से ही काबू में रखे ||३३|| गुरु ने भी इसी प्रकार कहा है ||५|| या उन्मूलन करने में क्या सोचनेवाले को कुछ क्लेश हो सकता है ? नहीं होसकता उसीप्रकार जिसका पर्स (सहायक लोग नष्ट कर दिया गया है, उस शत्रुको जीतने में भी कुछ क्लेश नहीं होसकता || १ || ( पृ०३३१का शेश ) १ तथा च शौनक – उपचारपरिशाणाद्दत्वा विसं सुबुन्द्रयः । बलिनो पतिस्म यच्छेषं गृहसंस्थितम् ॥ १ ॥ २ तथा च विष्णुशर्मा:- उपार्जितानां विसनो स्याग एव हि रचणं । तगोदर संस्थानों परवाह इसां ॥ ३ तथा च भागुहि: बलाढ्येन पितः समा] यो न यच्छति दुर्बद्धः । किंविद्वस्तु समं प्रास्तत्तस्यासों हरे ४] राधा व शुक्रः युत्सवगृहातिथ्या बलाधिके। सोमाधिपे सरैया रचार्थ स्वभ्रमस्य च ॥ १ ॥ ५ तथा च गुरुः - सीमाधिपे बलाश्रये तु यो न यति किंचन । स्पाजं कृत्वा स तस्याध संख्याहीम समाचरेत् ॥ १ ॥ I

Loading...

Page Navigation
1 ... 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454