Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 417
________________ युद्ध समुरश ३ शत्र द्वारा जिसका सन्य नष्ट कर दिया गया है व परदेश से आया हुअा एसा शक्ति-हीन गजा अपने झुण्ड से भ्रष्ट हुए अकेले हाथी के ममान किसके द्वार! वश नहीं किया जाता ? सभी के द्वारा वश कर लिया जाता है । अथात शुद्र लोग भी ससे पराजित कर देते हैं ॥३४॥ नारद' न भी शत्र द्वारा उच्चाटित, नष्ट सेना वाले राजा को अकेने हाथी समान वश करने योग्य यताया है । जिसकी समस्त जलराशि निकाली जा चुकी है ऐसे जल-शून्य तालाब में बतमान मगर भाद भयङ्कर जल-अन्तु भी जिस प्रकार जल सपक समान निविर्ष व क्षीण शक्ति हो जाता है, अमो प्रकार मैन्य के क्षय हो जाने से राजा का की शक्ति हो जाता है : भ्य' ने भी स्थान-हीन राजा को इसी प्रकार शक्ति-होन सताया है ।।१। जिम प्रकार जंगल से निकला हुआ शेर गीदड़ संमान शत्ति-हीन हो जाता है, उसी प्रकार नट-न्य वस्थान-भ्रष्ट्र राजा भो कीणशक्ति... जाता॥३६॥ शुक' ने भी स्थान-भ्रष्ट ( पदच्युत ) राजा की इसी प्रकार लघुता निर्दिष्ट की है ॥१॥ समूह निस्सार ( शक्ति-हीन) नहीं होता, क्योंकि क्या बटा हुआ नृणा-ममूह (घास का रस्सा) मदोन्मत्त हाथी के गमन को नहीं रोकता ? अवश्य रोकता है। मान् उसके द्वारा मदोन्मत्त हाबी भी , बांधा जाता है ॥३७॥ विष्णुशर्मा ने भी संपति का इसी प्रकार माहात्म्य बताया है ॥९॥ जिस प्रकार बटे हुए मृणाल-तन्तुओं से दिगाज भी वशीभूत किया जाता है (बांधा जाता है) मी प्रकार राजा भो सैन्यद्वारा शक्तिशाली शत्रु को वश कर लेता है-युद्ध में परास्त कर देता है ॥३८॥ हारीत ने भी इसी प्रकार राजा की सैन्यशक्ति का माहाल्य बठाया है ॥१॥ साध्य शत्रु व एष्टान्त, शक्ति व प्रताप-हीन शत्रु के विषय में रप्टान्तमाला, शत्र को विकनी चुपड़ी बातें, व एष्टान्स, नीतिशास्त्र अकेले विजिगीषु को युद्ध करने का निषेध व अपोचित शत्रु-भूमि दण्डसाध्ये रिषावुपायान्तरमनाचाहुतिप्रदानमिव ।। ३६ ॥ यन्त्रशस्त्राग्निकारप्रतीकारे व्याधी किं नामान्योषधं कुर्यातAli ४०॥ उत्पाटितदंष्ट्रो भुजंगो रज्जुरिव ॥४१॥ सपा मादः-परबाटितोऽरिमी राजा परदेशसमागतः । वनहस्तोव साध्मः स्वात् परिप्रहविवर्जितः ॥ २ तथा रैम्प:-सा सखिये मई यथा ग्राहस्तुमा प्रजेन् । जबसस्य सदस्य स्थानहीनो नृपो मवेद ॥ ३ वा शुक्रः-अगामा समभ्येति यथा सिंहो यमच्युतः । स्थानभ्रष्टो मृपोऽप्येवं साधुतामेति सर्व • तथा च विलुशमा:-हमामयसारा सममायो बबाधिकः । तृपौराष्टितो रज्जुण्या मागेऽपि बम.. ५ वा च हारीत:-अपि सूचमतभृत्य बहुभिर्भश्यमामरेत् । भपि बोर्वोत्कटं शत्र पसूर्यमा गम् ॥ A इसके पश्चात् मु. भू. पुस्तक में 'अज्ञातरणमृत्त:सर्वोऽपि भवति धुरः॥ १॥ अष्टाम्पसामध्यः को नाम म भवति

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