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२६ षाड्गुण्य-समुद्देश । राम व उद्योग का परिणाम, कक्षण, भाग्य व पुरुषार्थ के विषय में
शमव्यायामौ योगक्षेमयोर्योनिः ॥ १॥ कर्मफनोपभागानां क्षेमसाधनः शमः कर्मण पागाराधनो व्यायामः ॥२॥ धर्माधी ॥३॥ मानुष' नयानयों ॥४॥ मानुषञ्च कम लोकं यापयति ॥ ५॥ तच्चिन्त्यमचिन्त्य वा देयं ।।६॥ अचिन्तितोपस्थितोऽथसम्बन्धो देवायत्तः ॥ ७ ॥ बुद्धिपूर्वहिताहितप्राप्तिपरिहारसम्बन्धी मानुपापत्तः॥८॥ सत्यपि दैवेऽनुकले न निष्कर्मणो भद्रमस्ति ॥ ६ ॥ न खलु देवमीहमानस्य कसमप्यम मुखे स्वयं प्रविशति ॥ १० ॥ न हि दैत्रमयलम्बमानस्य धनुः स्वयमेव शरान संधत्ते ॥११॥ पौरुपमवलम्बमानस्यार्थानर्थयो: सन्देहः ॥ १२॥ निश्चित एवानों देवपरस्य ।। १३॥ आयुरोषयोरिय दैवपुरुषकारयोः परस्परसंयोगः समीहित्तमर्थ साधयति ॥ १४ ॥
मर्थ-शम (फर्मों के फत्तापभोग में कुशजता उत्पन्न करने वाला गुण ) य व्यापाम (नैतिक पुरुषार्य ) कार्य की प्राप्ति और उनमें सफलता प्राप्त कराते हैं । सारांश यह है कि शिव पुरुष लौकिक एवं धार्मिक कार्यों में तभी सफलता प्राप्त कर सकता है, जब यह पुण्य कर्म के फलोपभोग (पष्ट बसु की प्राप्ति ) में कुशल-गई-शून्य और पाप कमें के फजोपभोग { भनिष्ट वस्तु को पालि) में घोरवीर हो ॥ १॥
पुण्य पाप कमो के फल.इष्ट-मनिष्ट मस्तु के उपभोग के समय कुशलता का उत्पादक गुण { संपत्ति में गर्व-शून्यता और विपत्तियों में धैर्य धारण करना) 'शम' एवं कार्यारंभ किये जाने वाला उपोग 'व्यायाम' कहा जाता है ॥२॥
प्राणियों द्वारा पूर्वजन्म में किये हुये पुण्य व पाप कर्म को 'देव' ( भाग्य ) कहते हैं ॥३॥
व्यास ने कहा है कि जिसने पूर्व जन्ममें दान, मध्ययन व तप किया है, वह पूर्वकालीन अभ्यास वश इस जन्म में भी उसी प्रकार पुण्य कर्म में प्रकृति करता है ॥ १ ॥
नीतिपूर्ण (हिंसा व सत्य-आदि ) व अनीति पूर्ण (विश्वासघात आदि) कार्यो में किये जानेवाले उद्योग को 'पुरुषार्थ' कहते हैं, परन्तु कर्तव्य दृष्टि से विवेकी पुरुषों को श्रेय प्राप्ति के लिये नीतिपूर्ण सप्त. कार्य करने में ही प्रयत्नशील होना चाहिये ॥ १ ॥
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पास:-येन यमचात पूर्व दाममध्ययन वः । सेनैवाभ्यासयोगेन सत्ययाम्पत्यवे पुनः ॥