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नीतिवाक्यामृत
कि "मुक शत्र राजा द्वारा यह विजिगीष रक्षित व शक्तिवादित किया गया वथापि यह इसकी भक्ति सेवा श्रादि नहीं करता, इससे यह बड़ा कुतघ्न है-इत्यादि। अतः विजिगर को उसके प्रयोजन सिद्ध करने घाले की सेवा-श्रादि करनी चाहिये ।।८।।
गुरु' ने भी कहा है कि जिमको सहायता से राजा की वृद्धि हुई हो, उसको उसे सन्तुष्ट करना चाहिये, मान्यथा उसके मन में शंका उत्पन्न होती है व उसके साथ युन्न करने में निन्दाका पात्र होता है ॥शा
विजिगीप दोनों पक्ष से येशन पानेवाले गुप्तचरों के स्त्री पुत्रों को अपने यहा' सुरक्षित रखकर उन्हें शत्रु के श में भेजे, ताकि वे वापिस पाकर इसे शत्रु की प्रेमा निवेदन करें ॥३॥
जैमिनि ने भी दानों पक्षोंसे वचन पानवाल गुप्तचरों द्वारा शत्र की चेष्टा जानने का संकेत किया
विजिगीषु शव का अपकार करके उसके शक्तिहीन कुटुम्बियों के लिये उसकी भमि प्रदान कर उन्हें अपने अधीन बनाये अथवा यदि पे बलिष्ठ हों तो उन्हें क्लेशित करे ||४||
नारद ने भी शत्रु के कुटुम्पियोंके साथ ऐसाही, शाब करने का निर्देश किया है ॥२॥
घिजिगीषु अपने प्रतिद्वन्दो क । विश्वास उसो हालत में करे, जब वह शपथ स्थाये या गवाही उपस्थित कर अथवा उसके सचिव श्रादि प्रधानपुरुष उसके द्वारा अपने पक्षमें मिला लिये जावें ॥५॥
गौतम का उद्धरणभी शत्र के विश्वास करने के विपयमें उक्त साधनों का निर्देश करता है।
शव देश पर आक्रमण करतेसे वहाँ से हजार सुत्रणेमुदाओं का लाभ होने पर भी यदि अपने देशका सौ मुद्राओं का भी नुकसान होना हो तो राजाका कतवर है कि वह शत्रुवर आक्रमण न करे८६
__ भृगु ने भी हिस्सा है कि शत्रु देश पर अाक्रमण करने से बहुमूल्य लाभ हो पर साप में अपना व अपने देश का थोड़ा सा भी नुकसान हो तो शत्रु पर आक्रमण नहीं करना चाहिये ||१||
विजिगीषु के ऊपर पानेबाली अपत्तियां प्रज्ञा-प्रादि से होनेवाने पीठ पीछे के थोड़े से कोप से होतो क्योंकि जिस प्रकार सुई से वस्त्र में छिद्र होजाने के उपरान्त उसमें से बहुत सा डोरा निकल जाता है , उप्सीप्रकार देश में पीठ पीछे थोड़ा सा उपद्रय खड़ा हो जाने पर राजा को महान आपत्तियों का सामना करना पड़ता है अतः ऐसे अवसर पर विजिगीषु रात्र पर चढ़ाई करने प्रस्थान न करे ।।।
बादरायण' के श्लोक का भी यही अभिप्राय है ||१||
तथा । गुरु:-वि गरेयत: पारत्ति' प्रयत्नेन सापयेत् । अन्यथा जायते शंका रणगोपाद्धि गईमा १ ॥ २ तथा व जैमिनि:- गृहीतपुनदारांश्च करवा चोभयग्रेसनान् । प्रेषयेद्वैरिरः स्थाने प्रेम तरसेष्टित समेत् ॥ ॥ ३ तथा च नारदःसामयिया पर' युन्हे तमिस्तस्य गोत्रिणः । दातम्या मशो या स्थानान्यस्य तु कथंचन ॥१॥ ५ तथा गौतमः-शपथः कोशरानेन महापुरुषवाक्यतः । प्रतिभूरिष्टसंग्रहादिकरो विश्वयता प्रजेत् ॥ १॥ ५ तया च भृगुः पुरस्ताद्भस्लिाभेऽपि परमास्कोपोऽल्पको यदि । तद्याना नवकतच्या तस्वल्पोऽप्यधिको भवेत् । ६ सथा च बारायण:-स्वरूपेनापि न गन्त पश्चाकोपेन भूभजा। अत: स्यल्पोजसिद्वानः स वृद्धि परमायजेत् ।