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व्यवहार समुदेश
राक' ने भी उत्तम पुरुषों का समूह राभा द्वारा बुद्धि व पौरुष के गर्व-वश दंड देनेके अयोग्य बताया है ॥१॥
जिस भमि का अधीश्वर राक्षसी बात करने वाला (अपराध से प्रतिकूज अत्यधिक दंड देनेवाला व व्यसनी-प्रादि दोष युक्त ) नहीं है थलिक नीतिश व सदाचारी है वह (भमि ) राजन्वती (प्रशस्त राजा से युक्त) कही जाती है।
गुरु' ने भी नीतिज्ञ.व सदाचारी नरेश से युक्त पृथिवी को श्रेष्ठ व उन्नतिशील कहा है ॥१n
विना विचारे दूसरे के मतानुसार कार्य करने वाला और अपराधियों के अर्थमान प्राणमान को न जानकर विना सोचे समझे उनका प्राणघात करनेवाला-'अमुक अपराधी अपने अपराधानुकूल कानूनन किसने जुमाने, फिनी शारीरिक सजा के योग्य है ? त्यादि बिना सोचे समझे दूसरों के कहने मात्र से उनके धन, मान व प्राण लेने वाला । सौ रुपये जुर्माने के योग्य अपराधी से हजार रुपये जुर्माने में ) लेनेवाला, तुरूष दोषार फांसी देनेवालाराजा 'असुरवृत्ति (राक्षसी वर्ताव करनेवाला) कहा गया है ।।
भागुरि ने भी दूसरों के काने मात्र से निरपराधियों के लिये भी कड़ो सजा दे कर पोलिस करने वाले राजा को 'मसुरवृत्ति' कहा है ॥१॥
जो राजा दूसरों के कहने मात्र से ही बिना सोचे समझे जिस किसी के प्रति कुपित व प्रसन्न हो जाया करता है, उस परप्रणेय' कहा है ॥ ६ ॥
रामगुरु ने भी कहा है कि 'परप्रणेष राजा का राज्य चिरकालीन नहीं होता ॥ १ ॥
सेवक को स्वामी की उसो माला का पालन करना श्रेयस्कर है, जिससे उसके स्वामी का भविष्य में अहित न हो सके ॥ १० ॥
गर्ग ने भी कहा है कि मन्त्रियों को राजा के प्रति परिणाम में कष्ट न देने वाला, प्रिय प श्रेयस्कर वचन बोखाना पाहिये ॥१॥"
राजा को प्रजा से इस प्रकार धन ग्रहण करना चाहिये जिससे प्रजा को पीड़ा व उस के धन की चतिनहो। अथवा ऐसा अथ हो सकता है कि विवेकी पुरुष इस प्रकार से धन संचय करे, जिससे जनसाधारणको कह न हो एवं भविष्य में धन प्राप्ति का संबन्ध बना रहे ॥ १०१ ॥ भविष्य में महान् धनथे (रामवादि) सन करने वाला अशय-संचित धन स्पिरशाल नहीं होता । सारांश यह है कि चोरो मावि निम्ध कमे से जो धन संश्य किया जाता है, वह राजाद्वारा पूर्व संचित धन के साथ जम्स
तथा च शुक्र:-विपौरुषगर्षेण दयदेव महाज। एकानुगामि राजा पदा व शत्रुपूर्वकम् ।..... र सथा च गुरु:--पस्यां रामा सुत्तिः स्यात् सौम्परः स हि । सा भूमिः शोभते मित्र सदा रिगति ३ तथा च भागविः-परवान्पो यत्र सदा सुप्रपीड़येत् । प्रमूतेन तु पण्डेन सोऽसुरवृत्तिरुप्यते 1॥ । तया च रामगुरु:-परपणेयो भूपाक्षो न राज्य हे चिरं । पितृपैवामहं बेत स्थाहिं पुनः परसू ॥१॥ २ तयार गर्ग:-मंत्रिभिस्तस्पियं बार प्रभोः श्रेयस्करं च यत् । मावश्यां कर पर कार्य का कायम .