Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 407
________________ } बहारसमुद्दश विजिगीषुका सर्वोत्तम लाभ, अपराधियों के प्रति क्षमा करने से हानि, वा उनके 'निग्रह से लाभ नैतिक पुरुषका व्य, असर होने में हानि, दूषित राजसभा, गृहमें आये हुए पत्र के विषय में व धनार्जन का उपाय १८३ न पुण्यपुरुपापचयः यो हिरण्यस्य धान्यापचयो व्ययः शरीरस्यात्मनो लाभविच्छेद्यन सामक्रव्याद व न परवरुध्यते ॥ ८८ ॥ शतस्यापराधिषु या क्षमा सर्प तस्यात्मनस्तिरस्कारः ||८|| अतिक्रम्यवतिषु निग्रह कतु: सर्पादिव दृष्टप्रत्यवायः सोऽपि विभेति जनः || ६० || अनायकां बहुनायकां वा सभां प्रविशेत् ॥ ६१ ॥ गररिणः सिद्धे कार्ये स्वस्थ न किंचिद्भवत्यसिद्ध पुनः ध्रुवमपवादः ॥ ६२ ॥ सा गोष्ठी न प्रस्तोतव्या यत्र परेषामपश्यः ॥ ६३ ॥ गृहागतमर्थं केनापि कारथेन नावधारयेद्यदैव पार्थागमस्तदेव सर्वातिथि नक्षत्रग्रहबल || ६४ || गजेन गजबन्धनमिवार्थेनार्थोपार्जनम् ॥ ६५ ॥ + अर्थ-विजिगीषु को इस प्रकारके लाभकी इच्छा करनी चाहिये, जिस में उसके अमात्य व सेनाध्यस आदि प्रधान पुरुष कोश, अन्न तथा उसके जीवन का नाश न होने पाये एवं जिस प्रकार मांस लण्ड को धारण करनेवाला पक्षी दूसरे मांसभक्षी पक्षियों द्वारा रोका जाता है, उस प्रकार भी भूत राज द्वारा न रोका जा सके ॥ ८६ ॥ · शुक्र ने भी विजिगीषु को इसी प्रकार का लाभ चितवन करने के विषय में लिखा है ॥ १ ॥ जो राजा शक्तिशाली होकर अपराधियों को अपराधानुकूल वंडित न कर क्षमा धारण करता है, उसका तिरस्कार होता है, अतः राजा को अपराधियों के प्रति क्षम धारण नहीं करनी चाहिए ॥ ८ ॥ बादरायण* ने भी अपराधियों के प्रति क्षमा धारण करने वाले राजा का शत्रु कृद्र पराजय निर्देश किया है ।। १ ।। अपराधियों का निग्रह करने वाले राजा से सभी लोग अपने नाश की आशंका करते हुए सर्प के समान डरते हैं। अर्थात् कोई भी अपराध करने की हम्मत नहीं करता ।। ३० ।। से डरने के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥ i 1 भगुर ने भी दुष्टनि करने वाले राज' बुद्धिमान पुरुष को ऐसी सभा में प्रवेश नहीं करना चाहिये जिस में कोई नायक (नेवा) न हो या हुसे || ६१ ।। जन समुदाय या राजसभा आदि में विवेकी पुरुष को अमसर- मुख्य होना व्यर्थ है क्योंकि प्रयोजन सिद्ध होनेपर रनुख्ययक्ति को तो कोई लाभ नहीं होता परन्तु यदि प्रयोजन सिद्ध न हुआ तो सब लोग मुख्य की हो म निश्चय से निन्दा करते हैं, कि इसी मुर्ख ने विरुद्ध बोलकर हम लोगों का प्रयोजन नष्ट कर दिया ॥ ६२ ॥ १ तथा च शुक्रः स्वतंत्रस्य यो न मं तथा संचारमनोऽपरः । येन लामेन नाम्येश्य रुपते तं विचिन्तयेत् ॥ १ ॥ २ तथा च वादरायणः - शक्तिमान तमिः कुर्यादपराधिषु च सर्मा । स पराभवमाप्नोति सावि वैरिणा ॥ १ ॥ ३ तथा च भागुरिः -- अपराधिषु 4: कुर्यानिग्रह दारुणं नृपः । तस्माद्विभेति सर्वोऽपि सर्वसंस्पर्शनादिव ॥ १ ॥

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