________________
व्यवहार समुरेश
२७३
शुक्र विद्वान ने भी उक्त दोष वाले शत्र राजा को विजिगीषु द्वारा हमला करने योग्य बताया है।।१॥
विजिगीषु को प्राश्यहोन ( सहायकों से रहित ) व दुधैल पायवाले शत्र से युद्ध करके उसे नष्ट कर देना चाहिये ।। ३ ।।
शुक'ने भी उक्त प्रकार से शत्र को नष्ट करने के विषय में लिखा है । यदि कारणवश शत्र से संधि (मित्रता हो जावे. तो भी विजिगीष भविपके लिये अपना मार्ग निष्कपटक बनाने के लिये इसका समस्त छीनले या खसे संतरह दलित व शक्तिहीन करडाले, जिससे वह पुनः अपना सिर न उठासके॥३२॥ गुरु' ने भी सन्धिप्राप्त शत्रु राजा के प्रति विजिगीष का यही कर्तव्य निर्देश किया है।॥ १॥
अपने ही कुश का ( कुटुम्बी ) पुरुष राजा का स्वामाधिक शत्र है क्यों कि वह ईविश उसका नत्थान कभी न देख कर हमेशा पतन क विषय में उसी प्रकार सोया करता है, जिस प्रकार विलाय चूहे की कभी भी भलाई न सोचकर उसे अपना श्राहार बना डालता है ।। ३३ ।।
नारद ने विजिगीषु के गोत्रज पुरुषों को उसका स्वाभाविक शत्रु बताया है ॥ १॥
जिसके साथ पूर्व में विजिगीष बारा वैर विरोध उत्पन्न किया गया है तथा जो स्वयं आकर विजिगीष से वैर विरोध करता है-ये दोनों उसके कृत्रिम शत्र है। यदि ये बलहीन हैं, तो इनके साथ विजिगीषु को युद्ध करना चाहिये और, यदि प्रवल सैन्य-शक्ति-सम्पन्न हैं तो उन्हें सामनीति द्वारा सन्तुष्ट करना चाहिये || ३४॥
गर्ग' विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
दूरवर्ती ( मीमाधिपति--आदि ) शत्रु व निकटवतो मित्र होता है यह शत्रु मित्र का सर्वथा लक्षण . नहीं माना जासकता, क्योंकि शत्र ता व मित्रता के अन्य ही कारण हुश्रा करते है, दूरवर्तीपन व निकटवीपन नही। क्योंकि दूरवर्ती सीमाधीपति भी कार्यवश निकटवर्ती के समान शत्रु व मित्र होसकते हैं ।३५
शुक्र विद्वाम ने भी शत्रता व मित्रता के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
हानबल को मंत्र-शक्ति कहते हैं। शारीरिक बल से बुद्धिबल महान व श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि इसके समर्थन में अष्टान्त है कि बुद्धि पल में प्रवीण अल्प शारीरिक शक्तियुक्त किसी स्वरगोश ने प्रचंड शारीरिक शक्तिशाली शेरको भी बुद्धियल से मार डाला । सारांश यह है कि विजिगीष मंत्रशक्ति, प्रभुस्वशक्ति व उत्साहशक्ति से सम्पन्न होकर शत्र से विजयश्री प्राप्त कर सकता है अन्यथा नहीं। उसमें शारिक बल को अपेदा बुद्धिबम को प्रधानता है ।। ३६-३८ ।।
-..--...-...
--
-
--
---
--
-
-
। तथा च शुक्रः-विरक्तप्रकृतिवरो व्यसनी लोमसंयुतः । शुद्रोऽमास्यादिभिमुक्तः स गम्यो विजिगीषुणा ॥ १॥ २ तथा पराक्रः-समाश्रयो भदेरछत्रयों का स्याह बलाश्रयः । तेनैव सहित: सोऽत्र निहन्तव्यो जिगीषुणा ॥ १ ॥ ३ तथा च गुरु:-शामिनत्वमापको यदि मो चिन्तयेस्छिवम् | उत्कृर्षाद्विभवहीन युद्ध वा तं नियोजयेत् ॥ १॥ ४ तथा समान! - गोत्रा:शत्रः लवा..."तत्पदवाटकः । रोगस्येव न ताहिर कदाचिरफारसुधीः ।।
सयाच गर्ग:-यदि होनबल:शः कृत्रिमः संग्रजायते । तदा वण्डोऽधिको वा स्याह यो एस्पशक्तितः ।। ६ तथा च शुफ:- कार्यात्सीमाधिपो मित्रं भवेतपरजो रिपुः । विजिगोपुणा प्रकर्तव्यः शमित्रोपकार्यतः ||