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नीतिवाक्यामृत
___ग ने भी दुधीभाव करने का यही मौका बताया है ।॥ १॥
दोनों बलिष्ठ विशिदीपुत्रों के मध्यवर्ती शत्र, सीमाधिपति प्रसि विजिगोषु का कत्तव्य, भूमिफल (धान्यादि ! देने से लाभ व भूमि देने से हानि, चक्रवर्ती होने का कारण तथा वीरता से लाभ
बलद्वयमभ्यस्थितः शत्रुर भयसिंहमध्यस्थितः करीव भवति सुखसाध्यः ॥ ६४ ॥ भूम्यर्थिन भूफलप्रदानेन संध्यात् ।। ६५॥ भूफलदानमनित्यं परेषु भूमिर्गता गतैव ॥ ६६ ॥ अवज्ञयापि भूमावारोपितस्तरभवति बद्धतलः ॥६७॥ उपायोपपनधिक्रमोऽनुरक्तप्रकृतिरल्पदेशोऽपि भूपतिर्भवति सार्बभौमः ॥ ६८॥ न हि कुलागता कस्यापि भूमिः किन्तु वीरभोग्या वसुन्धरा ।। ६६ ॥
अर्थ-दोनों विजिगीषुओं के बीच में घिरा हुआ शत्रु, दो शेरों के बीच में फंसे हुये हाथी के समान सरलता से जीता जा सकता है ।। ६४ ।।।
शुक्र ने भी दोनों विजिगीषुषों से आक्रान्त शत्र को सुखसाध्य बताया है ॥१॥
जब कोई सीमाधिपति शक्तिशाली हो और वन विजिगीषु की भूमि प्रहण करने का इच्छुक हो तो इसे भूमि से पैदा होने वाली धाम्य ही देकर उससे सन्धि करलेनी चाहिये, न कि भूमि देकर ॥ ६ ॥
गुरु' ने भी शक्तिशाली सीमाधिपति के लिये भूमि न दे कर उससे उत्पन्न होने वाली धान्य वेने को कहा है ॥ १॥
क्योंकि भूमिमें उत्पन्न होने वाली धान्य विनश्वर होने के कारण शत्रु के पुत्र-पौत्रादि द्वारा नहीं भोगी जा सकती, जद कि भूमि एकवार हाथ से निकल जाने पर पुनः प्राप्त नहीं हो सकती ॥ ६६॥
गुरु ने भी बलिष्ठ शत्रुभूव राजा को भूमि को छोड़ कर उससे सत्पन्न हुई धान्याहिका देना कहा है
जिस प्रकार तिरस्कारपूर्वक भी आरोपण किया हुआ वृक्ष पृथ्वी पर अपनी जड़ों के कारण से ही फैलता है, उसी प्रकार विजिगीष द्वारा दो हुई पृथिवी को प्राप्त करने वाला सीमाधिपति भी मूल (शक्तिशाली ) हो कर पुनः उसे नहीं छोड़ता ॥ ६७ ।।
भ्य विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १॥
साम-दानादि नैतिक उपायों के प्रयोग में निपुण, पराक्रमो व जिससे अमात्य-प्रादि राज-कर्मपारीगण एवं प्रजा भनुरक्त है, ऐसा राजा पल्प देश का स्वामी होने पर भी चक्रवर्ती के समान निर्भए १ तथा च गर्ग:-पपसी सन्धिमावातु युद्धाय कुरुते क्षणं । निश्चयेन तदा तेन सह सविस्तया रपम् ॥७॥ • तथा च शुक्रः-सिंहयोर्मध्ये यो हस्ती पुखसाध्यो यथा भवेत् । तया सीमाधिपोऽन्येन विगृहीतो वो भवेत् ॥1॥ २ तथा च गुरु:-सीमाधिपो बलोपेतो यदा भूमि प्रपामते । तदा तस्मै फल देय भुमेध धरा मिजाम् ॥॥ ४ तथा व गुरु:-भूमिपम न दातव्या मिशा भूमिवीयसः | स्तोकापि वा भय क्षेत् स्या-स्मा - तरूपम् || ५ तया च रेभ्यः-लीलयापि हितौ सूतः स्थापितो वृद्धिमाप्नुयात् । तस्या गुणेन नो भूपः कस्माविहन वर्धते ॥॥