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व्यवहार समुद्द
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में आसक्त है, गुरुकुल की उपासना करने वाला एवं समस्त राज-त्रिद्याओं (भान्जीक्षिकी, श्री, वातो व नीति का बत्ता विद्वान तथा युवराज पद व अलकत्र ऐसा क्षत्रिय का पुत्र राजा ब्रह्मा के समान माता गया है ।।
राज्य जन्मी की दोक्षा से अभिषिक्त, अपने शिष्टगखन व दुष्टनिमह आदि मद्गुणों के कारण प्रजा में अपने प्रति अनुराग उत्पन्न करने वाला राजा विष्णु के समान नीतिकारों द्वारा कहा गया है। रा व्यास ने भी राजा को विष्णु माना है ॥१॥
बढ़ी हुई है प्रताप रूपी तृतीय नेत्र को अग्नि जिसकी, परमैश्वर्य को प्राप्त होनेवाला, राष्ट्र के कटक शत्रु रूप दानत्रों के संहार करने में प्रयत्नशाल ऐसा विरंजा राजा महेश के समन यांना गया है । १६ ।
राज कव्य (उदासीन आदि राजमण्डल की देख रेख ) उदासीन, मध्यस्थ, विजिगोपु, अरि, पाहि असार अन्यद्धि का लक्षण --
उदासीन मध्यम चिजगीषु अमित्रमित्रपाणिग्राहाक्रन्द सारान्तद्ध यो यथासम्भव गुण गणविभ वतारतम्यान्मण्डलानामधिष्ठातारः ॥ २० ॥ ग्रतः पृष्ठतः को वा सन्निकृष्टे वा मण्डले स्थितमध्यमादीनां विग्रहीतानां निग्रह संहितानामनुग्रहे समर्थोऽपि केनचित् कारणं नान्यस्मिन् भूपती विजिगीषुमाणां य उदास्ते स उदासीनः||२१|| उदासीनवद निपत मण्डलोऽपर भूपापेक्षया समधिकचलोऽपि कुतश्चित् कारणादन्यस्मिन् नृपतौ विजिगीघुमायो मध्यस्थभावमवलम्बते स मध्यस्थः ।। २२ ।। राजात्मदेवद्रव्यप्रकृतिसम्पन्नो नयविक्रमयोरधिष्ठान शिंजगीषुः॥ २३ ॥ यत्र स्वस्याहितानुष्ठानेन प्रतिकूल्यमियति स एवारिः ॥ २४ ॥ मित्रलचणमुक्तमेव पुरस्तात् || २५ ।। यो विजिगीपी प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात् कोषं जनयति स पाणिग्राहः ।। २६ ।। पाणिग्राहाद्यः पश्चिमः स आक्रन्दः ||२७|| पाणिग्राहा मिश्रमा सार चान्द मिश्र च ॥ २८ ॥ अरि विजिगीपोर्मण्डलान्तविहितवृत्तिरुभयचेतनः पर्वताटकी कृताश्रयश्चान्तर्द्धिः || २६ ।।
अर्थ - राजमण्डन के अधिष्ठाता उदासीन, मध्यम, विजिगीषु, अरि, मित्र, वार्षिकमा आक्रन्द, आसार व अन्तर्हि है, जो कि यथायोग्य गुग्गुलमूह और ऐश्वर्य के तारतम्य से युक्त होते हैं। सारांश ह है कि विजिगीषु इन को अपने अनुकूल रखने का प्रयत्न करे || २० || अपने देश में वर्तमान जो राजा किसी अन्य विजिगीषु राजाके श्रागे पीछे या पार्श्वभाग में स्थित हो और मध्यम आदि युद्ध करने वाओं के नियह करने में और उन्हें युद्ध से उन्हें रोकने में सामर्थ्यवान् होनेपर भो किसी कारण से या किसी
१ तथा
सः नाविष्णुः पृथिवीपतिः
A पाठ मु० पुस्तक से संकलन किया गया है, सं०टी० पुस्तक में पाणिमाह मित्रमित्यादिपाठ है