Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 394
________________ ३७० नीतिवाक्यामृत जो मनुष्य भाग्य के भरोसे रहता है, उसका अकर्मण्यता के कारण अनर्थ होना निश्चित की है १३ नारद' ने भी देव को प्रमाण मानने वाले उद्योग-शून्य मनुष्य का अनर्थ होना बताया है ॥ १ ॥ जिस प्रकार आयु और योग्य और का मिलाप जीवन-रक्षा करता है, उसी प्रकार भाग्य व पुरुषार्थ दोनों का संयोग भी मनोवांछित वस्तु उत्पन्न करता है। अर्थात् जिस प्रकार आयु रहने पर ही श्रीष बीमार को स्वास्थ्य प्रदान करती है, आयु के त्रिना नहीं, उसी प्रकार भाग्य की अनुकूलता होने पर किया हुआ पुरुषार्थ मनुष्य को इष्ट-सिद्धि प्रदान करता है, भाग्य की प्रतिकूलता में नहीं ॥ १४ ॥ भारद्वाज ने भी आयु के बिना सैकड़ों औषधियों का सेवन निरर्थक बताया है ॥ १ । धर्मका परिणाम व धार्मिक राजा की प्रशंसा अनुष्ठीयमानः स्वफलमनुभावयन्न कश्चिद्धर्मोऽधर्ममनुबध्नाति ||१५|| त्रिपुरुषमूर्तित्वान्न भ्रूज: प्रत्यक्ष देवमस्ति ।। १६ ।। प्रतिपन्न प्रथमाश्रमः परे ब्रह्मणि निष्णातमतिरुपासितगुरुकुलः सम्यग्विद्यायामधीती कौमारवयाऽलंकुर्वन् क्षत्रपुत्रा भवति ब्रह्मा । १७ संजातराज्यबुलक्ष्मीदीक्षाभिषेकं स्वगुणै: प्रजास्वनुराग' जनवन्तं राजानं नारायणमाहुः ||१८|| प्रवृद्धप्रताप तृतीयलोचनानलः परमैश्वर्यमातिष्ठमानो राष्ट्रकण्टकान् द्विद्दानवान् छेन यततं विजिगीषुभूपतिर्भवति पिनाकपाणिः ||१६|| - जब मनुष्यों द्वारा धर्म (अहिंसा व सत्य आदि) पालन किया जाता है तब वह (घ) उन्हें अपना फल देता है उनके पाप ध्वस करता है और अधम (पाप) उत्पन्न नहीं करता। अर्थात्धर्मानुष्ठान करने वाले को अब नहीं होता, क्योंकि धर्म रूपां सूर्य के उदय होने पर पापरूपी अंधेरान तो रह सकता है और न उत्पन्न ही हो सकता है। अतः प्रत्येक प्राणी को सांसारिक व्याधियों के कार पापों की निवृत्ति के लिये धर्मानुष्ठान करना चाहिये ||१५|| भगजिनसेन चायें ने भी अहिंसा, सत्य, क्षमा, शीख, तृष्णाका त्याग, सम्यग्ज्ञान व वैराग्य सम्पतिको धर्म और इनसे विपरीत हिंसा व झूठ आदि को अधर्म बताते हुए बुद्धिमानों को अनर्थपरिहार (दुःखों से छूटना) की इच्छा से धर्मानुष्ठान करने का उपदेश दिया है ||१|| राजा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्ति है, अतः इससे दूसरा कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है | ११६ ॥ मनु ने भी शुभाशुभ कर्मों का फन देने के कारण राजा को सर्वदेवतामय माना है ||१|| जिसने प्रथमा श्रम (ब्रह्मचयाश्रम को स्वःकार किया है, जिसकी बुद्धि परम ईश्वर या ब्रह्मचर्यव्रत ) S...-- १ तास नावंद: – प्रभाकीत्य यो देवं नोथम कुरुते नरः । स नूनं नाशमायाति नारदस्य यो यथा ॥ १ ॥ २ तथा भारद्वाजः - विमायुषं न जीवेत मेषज्ञानां शतैरपि । न भेषजैर्विना रोगः कथम्बिनि शाम्यति ॥ १ ॥ ३ तथा च मगवजिन नार्थ :- धर्मः प्राणिदया सत्यं शान्तिः शौच दिसृप्तता । शामवै रा संपशिरधर्मस्वद्वियः धर्मैक पर छत्ते बुद्धोऽमर्थजिहासया । आणि पुराय पर्व १० तथाच मनुः सर्वदेवमयो राजा सर्वेभ्योऽप्यधिकोऽथवा । शुभाशुभफलं सोऽत्र देवाह घरे अवान्तरे ॥ १ ॥

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