Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 393
________________ व्यवहार समुद्देश दुसरे कार्य को सिद्धि के विषय में सोचने बाले व्यक्ति को विना विचारे अचानक ही अगर किसो इष्ट अनिष्ट पदार्थ को प्राप्ति हो जाती है, तो उसे भाग्याधीन समझना चाहिये ॥ ७ ॥ शुक्र' ने भी अचानक प्राप्त हुईष्ट मानष्ठ अर्थ सिद्धि को भाग्याधीन कहा है॥१॥ मनुष्य बुद्धिपूर्वक सुखदायक पदार्थों की प्राप्ति व कष्टदायक पदार्थों से निवृत्ति करता है, वह एसके नौवक पुरुषार्थ पर निर्भर रे ॥ ८ ॥ शुक्र* ने भी बुद्धिपूर्वक सम्पन्न किये हुये कार्यों को पुरुषाय के अधीन बताया है ॥ ५ ॥ भाग्य अनुकूल होने पर भी यदि मनुष्य धाग-हीन (श्रालसी)है तो इसका कश्याण नही हो सकता, सारांश यह है कि विवेकी पुरुष भन्मभरोसे न धैठ कर सदा मौकिक व धार्मिक कार्यों में पुरुशर्ष करता रहे, इससे उसका कल्याण हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥1॥ वक्षभदेव ने भी समाग द्वारा कार्यानदि होने का समर्थन किया है १. जिस प्रकार भाग्य-यश प्राप्त हुमा अन्न भाग्य के भरोसे रहने वाला व्यक्ति के मुख में स्वयं प्रविष्ट नहीं होता, किन्तुहस्व-संचालन आदि पुरुषार्थ द्वारा हो प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार केवा भाव भरोसे रहने वाले मनुष्य को कार्य में सफलता नहीं मिलती, किन पुरुषार्य करने से ही मिलती है ॥१०५ भागुरि' ने भी भाग्यवश प्राप्त हुये अन्न का दृष्टान्त दे कर उद्यम करने का समर्थन किया है ।।। जिस प्रकार धनुष अपनो डोरो परवाणों को स्वयं पुरुष प्रयत्न के विना स्थापन नही कर सकता, उसो प्रकार भाग्याधीन पुरुष भो उद्योग के बिना किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता ॥११॥ जैमिनि' के उद्धरण से भी वक्त दृष्टान्त द्वारा योग करने का समर्थन होता है ॥ १॥ पुरुषार्थ का सहारा लेकर कार्यारम् करने वाले मनुष्य को इष्ट-सिद्धि (मार्थिक लाभ पारि) भनय (भार्थिक हानि श्रादि) होने में संबह रहता है । सारांश यह है कि उपमा पुरुष पापारादि कार्य भारम्भ करता है, परन्तु इसमें मुझे प्रार्षिकझाम (मुनाफा होगा या नहीं ? अथवा इसमें मुझे हानि (पाटा) at नही हो जायगो ? इस प्रकार शकित रहता है । फर्सथ्य ष्टि से अभिप्राय यह है कि पुरुषार्थी ( उद्योगाशीय) पुरुष की मर्थ सिद्धि भाग्य का अनुकूलता पर ही निर्भर है, परन्तु भाप की प्रमुखाता व सिनता का निश्चय पुस्वार्थ किये बिना नहीं होता थप विपकी पुरुषको नात पुरुषाथ द्वारा सदा कचशील होना चाहिये - १२॥ पशिष्ठ' से भी पुरुषायों को शक्ति बताते हुये पुरुषार्थ को भोर प्रवृत्ति कराया ॥१॥ । तया -मम्पम्पिमानस्य यम्मपि जायते । शुमचा दिगपाई मान सत् ।।। याएक:हिपूर्ष तु पत्कर्म विपत्तेऽत्र शुभाशुभ | नरायतं प समशेय' सिव' पालिरमेव बमापक्षभदेष:-उधमेन हि सिदाचारित कार्याय मनोरयः । न हि सुप्तस्य सिंहस्प प्रविशन्त्रि मुखे सम्मः । तया मागुरिप्राप्त' देवववादन्न भासंस्थापि धेच्छुभं । हात्र प्रविशेद् वपन्ने पारप्रति मो . ...जैमिनि:-मांचमेन बिना सिविं कार्य गच्छति विचमा यथा पाप न गम्ति उपमेम विमा शराः । तपासवरिष्ठ:-पौरुषमाक्षितसोकस्य नुनमेकतम' भवेत् । धन' वा मरमवाय वशिष्ठए यो यथा...

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