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व्यवहार समुदश
इसके विपरीत नोति-विरुद्ध असत् प्रवृत्ति करने वाला पापी है, उसकी तीर्थ सेवा हाथी के स्नान की तरह (नफल है।३॥
गगं' विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
जिस प्रकार व्यायादि हिंसक जन्तुओं में दयालुता और प्राचार-भ्रष्ट (पापी) पुरुषों में पाप से वरना प्राश्चर्यकारक होता है, लसी प्रकार तीर्थस्थानों में रहने वाले ब्राह्मणों में भी देवता पर चढ़ाई हुई अन्यका त्याग करना भाश्चर्यकारक होता है। विद्वानोंने कहा है कि तीर्थस्थानों में रहने वाले मनुष्यों की प्रकृति अधार्मिक, निर्दयी (फर) और छल कपटपूर्ण होती है ॥४॥
जो स्वामी अपनी प्रयोजनसिद्धि हो आनेपर सेवकोको नियुक्त नहीं करता अथवा नियुक्त कर प्रयोजन सिद्ध होने पर भी उन्हें वेतन नहीं देता वह निन्ध है ॥५॥
भृगुने' भी प्रयोजन सिद्ध होजाने पर सेवकों की नियुक्ति न करने वाले स्वामीको निन्ध कहा है ॥५॥
जो सेषक अपने द्वारा स्वामी की प्रयोजन-सिद्धि समझ कर उससे धनकी याचना करता है, एवं जो मित्र अपने द्वारा मित्र की प्रयोजन-सिद्धि समझकर उससे धन पाहता या मांगता है वे दोनों (सेवक व मित्र) दुष्ट है ॥ ६॥
भारद्वाज ने भी ऐसे स्वाथोन्ध सेवक व मित्र की कड़ी आलोचना की है ॥ १॥
वह स्त्री निन्य है जो धनके कारण पति से प्रेम करती हुई उसका गादालिशान करती है। सारांश यह है पतित्रता स्त्री को पति के सुख-दुख में उसके साथ एकसा (प्रेमपूर्ण) बसाव करना चाहिये ।।७॥
नारद ने भी संपत्ति काल में ही पतिसे अनुराग करने वाली स्त्री की कड़ी मालोचना की है ॥६॥
वह देश निन्ध है, जहॉपर मनुष्य के लिये जीवन-निर्वाह के साधन (कृषि व न्यापार -मादि) नहीं है, अतः विवेकी पुरुषको जीविका-योग्य देश में निवास करना चाहिये ॥६॥
गौतम विद्वान ने भी जीपिका-शून्य देशको छोड़ देने का संकेच किया है ॥१॥ निंद्य बन्धु, मित्र, गृहस्थ, दान, माहार, प्रेम, भाचरण, पुत्र, मान, सौजन्य व नश्मीस कि वन्धुर्यो व्यसनए नोतिष्ठते ।। तम्कि मित्र यत्र नास्ति विश्वासः ।१०॥ स किं गृहस्था यस्प नास्ति सत्कलनसम्पत्तिः ॥११॥ तत्किं दानं यत्र नास्ति सत्कारः
॥१२॥ तत्कि भुक्त यत्र नास्त्यतिथिसंविभागः ॥१३॥ · तत्किं प्रेम यत्रकार्यवशात प्रत्या३ तथा गर्गः-मुक्या पानं पो वाथ तथा प्रायोपवेशन | करोति यश्चतुर्थ यत्तीय कर्म से पापमा । २ तथा च भृगुः-कार्यकाने तु. सम्प्राप्ने संभावयति न प्रभुः। यो भृत्यं सर्वकानेषु स रखाग्यो दूरतो पुरैः ॥ ३ तथा भारद्वाजः-कायें जाते न यो भ्रायः सखा पार्थ प्रयासते । न भृत्य स ससा मैक दो द्वावपि हि पुर्जनौ । ४ तथा च नारदः-मोहने सतानि पार्थेन विमयं मजेत । न सा भार्या परिशमा परयस्त्री साम संब: १॥ ५ तथा च गीतमा स्वदेशेऽपि न निर्वाहो भवेत् स्वल्पोऽपि पत्र । विशेषः परदेशः स त्याज्यो दूरेण परिखत: ॥