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नीतिवाक्यामृत
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पूर्वमें कहे हुए अपने वचनों पर सभ्य मनुष्यों द्वारा प्रश्न थिये जाने पर जो यथोमिस उत्तर न देसकता हो, जो कही हुई बासको सस्य प्रमाणित न कर सके, अपनी गतियों पर ध्यान न देकर जो उल्टा प्रतिवादोको ही दोषी बताता हो, एवं सजनों द्वारा कहे हुए उचित शन्दों पर ध्यान न देकर सभा से ही द्वेष करना हो उपरोक्त बिन्हों-सवर्णोखे जान लेना चाहिए कि यह वादी. प्रतिवादी, या साक्षी, (गवाही) वाद विवाद में बार गया है॥७॥
जो मभासद छलकपट, बलात्कार व वाकचातुर्य द्वारा बादोकी स्वाथ-दानि करते हैं, वे अधम है .
भारद्वाज ने भी प्रत उपार्योसे वादी की प्रयोजन-सिद्धिमें बाधा पहुंचाने वाले सभासदोंकी कटु आलोचना का है ॥शा
पथार्थ अनुभव, सच्चे गवाही और सपा लेस इन प्रमाणोंने याद विवादमें सत्यवाका निर्णय
होता है।
मिनि ने भी वाद विवादमें प्रस्य अनुभषके प्रभाव में सादी और साक्षो न होने पर लेख को प्रमाण माना है ।
जहां पर सदोष अनुभव व भूले गवाहो मोर मुटे लेख ववमान होते हैं, पहा पर यथार्थे निय न होने से बार विवाद समाप्त न होकर उष्टा बढ़ता ही है ॥१०॥
रैभ्य ने भी अक बाते वाद विवादको समाप्त न कर पन्दी बढ़ाने वाली बताई है ॥३॥
पूर्वोक अनुभव व माझी मादि अब सभाषदों द्वारा बजारकार व अन्याय पूर्वक एवं राजकीय शक्ति की सामध्येसे उपयोगमें क्षाये जाते हैं. सम प्रमाउनही माने जाते ॥११॥
भागुरि'ने भी मनाकार, अभ्याय व राजकीय शक्तिसे किये जाने वाले अनुभव आदि को प्रसस्य कहा है ॥२॥
यपि धेश्या और शुभारी झूठे हुमा करते हैं, परन्तु न्यायालय में उनके द्वारा कही हुई बास भी । उत भनुभव व सासी माविहारा निणेय की आने पर प्रमाण मानो जाती है ॥१२॥
वैभ्य ने भी उक्त बावका समर्थन किया है ||
विवाद की निष्पक्षता, धरोहर सम्बन्धी विवाद-नियोय, गयाही को सार्थकता, शपथके योग्य अपराधी व इसका निर्णय होने पर पंड विधान--
असत्यकारे व्यवहारे नास्ति विवादः ॥ १३ ॥ नीवीविनाशेषु विवादः पुरुषप्रामाण्यात , तथा च भाशाज:--लेनापि पोनापि वपन समावादिनः स्वाहानि से प्रकुर्वन्ति च सेऽभमाः |
तया च जैमिणिः-संबादेव । सबैष शासन भुक्तिप्यते । भुक्शेरमन्तर साक्षी भावे व समम् ||१॥ ३ तथा नरभ्यः-बारबारेण मा भुक्ति साकोणाः साक्षियोऽत्र थे। शासन कमिखितामयानि पीएपपि ॥१॥ । तथा च मागुरि:-बमारकारेख यत् कुर्यः सम्पाश्चान्यायतस्तथा । राजोपभिकत सस्प्रमाणं भवेन्न हि || ॥ १ तथा चम्मा -यामेरया पश्य प्राप्य बघुमान बहु अजेन 1 सहिको युतकारश्च तो वापि ते समो॥॥