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व्यवहार समुहेश
गौतम भी मृत्यधके रक्षण में असमर्थ पुरुष को स्वामी ने मानकर सम्यासी माना है ॥१॥ लेख व वचनमें से जेख की ही विशेष प्रतिष्ठा व अत्यधिक प्रामाणिकता होती है और वनोंक चाहे थे पदस्पति द्वारा ही क्यों न कहे गये हो', प्रतिष्ठा नहीं होती ।।६।। राजपुत्र'ने भी जेन को ही विशेष महत्वपूर्ण व प्रामाणिक माना है |शा
अनिश्चित लेख प्रामाणिक नहीं गिने जाते । सा यह है कि मनुष्यको किसीकी किस्ती हुई बात पर सहमा-विना सोचे समझे विश्वास नहीं करना चाहिये और प्रत्यक्ष व साहियों द्वारा उसका निर्णय करना चाहिये ॥६॥
गुक'ने भी कहा है कि 'भूते जोग झूठे लेख लिलाने के बहाने से साजन पुरुषों को धोखा देते हैं; अवः विद्वानों को बिना निश्चय किये किसी को लिखो हुई बात पर विश्वास नहीं करना चाहिये ||
स्वामी, स्त्रो और यकचेका मध ये वोन महा पाप है, जिनका कुशल मनुष्यको इसी लोकमें तत्काल भोगना पड़ता है ||६||
नारदने ने भी ऐनृशंस हत्यारेको उभयज्ञोकमें दुःख भोगने वाला कहा है।
जिस प्रकार विना नौका कंवल भुजा मोसे ममुद्र पार करने वाला मनुष्य शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है, “सी प्रकार कमजोर पुरुष बलिष्ठ पुरुष के साथ युद्ध करनेसे शीघ नष्ट हो जाता है, भवः निलको बांसडके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये ॥६६|
गुरुप ने भी कमजोरको शक्तिशाली के साथ यह करनेका निषेध किया है ॥ ' जो मनुष्य पाषाणका लाभयसहारा या उपकार-पाकर उससे उदाता का ववि करता है, इसको तत्काल मृत्यु होती है ॥६॥
परदेशकी यात्रा पक्रवती को भी कष्ट देती है, पुनः साधारण व्यक्तिको उससे कट होना स्वाभाविक है ॥८॥
पारायण' ने भी परदेश यात्राको विशेष कष्ट देने वाली कहा है ॥१॥ मनष्यको परदेशको यात्रा पर्याय भोजन सामयी श्राक्षाकारी सेवक व उचप धन व वस्त्रादि सामग्रो दुखः रूप समुद्रसे पार करने के लिये जहाजके समान है ॥
इति व्यवहार-समुहेश ।
.पा-गतमः-मस्ववाजे जाते पो या कुल्वे प्रभुः । स स्वामी - परिशय हासीमः सह .वागमपुरा-विलितहाधिक प्रतिष्ठा पाति चिन् । बिस्पतेरपि प्राय:नि स्वापि स्यचित् ।
तथा शुक्रा-कुरलेखप्रपंचेन पूर्वरार्थसमा नराः । मेला कम्यः सामिज्ञान विमा : "तपाल नारदा-स्वामिन्त्रीबाबइन्तयां समा फलति पातक । इह बोकेऽपि च तापमोपभुज्यते । ५ व्या पुरु:-बाखिना सहपुर य: प्रकोसि सुदुर्षयः । रुणं कृत्वात्मनः शकल्या युवं स्व विकारामम् ।। तथा चारापमः-बसे सीति प्रापरकरस्यपि यो भवेता किं पुनस्थ पाथेय मर्यात गवसतः ॥1