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नीविवाक्यामृत
तत्सौजन्यं यत्र नास्ति पराद्वगः ॥५७॥ तद्धीरत्वं यत्र यौवन नानपवादः ॥५८|| तत्सोभाग्यं यत्रादानेन वशीकरणं ॥५६ सा सभाण्यानी यस्यां न सति विद्वांसः ॥ ६० ।। कि नेनात्मनः प्रियेण यस्य न भवति स्त्रय' नियः ॥६॥स कि प्रभुयों न सहते परिजनसम्बाधम् ॥६२। न लेखाचन प्रमाण ६३॥अनभिज्ञाते लेखेऽपि नास्ति सम्प्रत्ययः ॥६॥ श्रीणि पातकानि सद्यः फलन्ति स्वामिद्रोहः स्त्रीत्रधा बालवधश्चेति ॥६५॥ अजयस्य समुद्रावगाहनमिवायलस्य बलवत्ता सह विग्रहाय टिरिटिल्लितं ॥६६॥ पलवन्तमाश्रित्य विकृतिभंजनं समो मरजक सं १ का पकनिनामपि सन्तापयति कि पुनर्नान्यं ॥६८|| बहुपाथेयं मनोनुकूल: परिजनः सुविहितश्चोपस्करः प्रवासे दुःखोतरण तरएडको वर्गः ॥६६॥ अर्थ-यही समनसा है, जिससे दूसरों के हृदय-सरोवरमें भय व उदग न होकर प्रसमा महराये
वावरायण' ने भी जनसमुदाय को प्रसन्न रखनेवाले कार्यों को सजनता और इससे विपरीत भयोत्पादक कार्योको पुजैनसा कहा है ॥१॥
मो शिष्ट पुरुष युवावस्थाको प्राप्त करके अपने जीवनको परस्त्री व वेश्यासेवन श्रादि दोषोंसे दुषित नहीं होने देते अर्थात- अपनी स्त्रीमें हो सन्तुष्ट रहते हैं उनका यह धोरवा गुण है ॥५८||
शौनक ने भी युद्ध में प्रवीर पुरुषको धीर न कहकर युवावस्थामें परस्त्री व वेश्या सेवन के स्वागीको 'धीर' कहा है ।।५।।
दान न देने पर भी जम-समुपाय को वशीभूत रखने वामा मनुष्य भाग्यशाली है ।।५।। गौतम भी पैसे के बजपर दूसरोंको वश करने वाले को भाग्यशाली नही मानता l जिस सभामें विद्वाम् पुरुष नहीं है। उसे जंगल समझना चाहिये, क्योंकि कि-मगडोरे बिना सम्भो को धर्म-अधर्म कर्त्तव्य-भकर्तव्य का बोध नहीं होता ।।६०॥
वह मनुष्य शत्रु समान है, जो अपनी हरयाहीनता परा दुसरे मनुष्य द्वारा प्रेम करने पर भी उसका प्रत्युत्तर प्रेमसे न देकर रुष्टतासे देता है ॥६॥
राजपुत्र के संगृहीत श्लोकका भी यही अभिप्राय है ॥शा
जो स्वामी अपने सेवको द्वारा वेतन मादि मांगने पर उनको वेपन प्रादि देने में रिलकिषावा है उनके वर्चका धमका सहन नहीं कर पाता वह निन्दनीय है।सा . , तथा च पारायण-पस्व इत्पैन कास्नेन सामन्यासाश्मनो fam: । सौजन्य स त तिमोजण २ स्था च शौनक:--परवादियोषण रहित पस बोवन । बाविया पुमा पीरो, पीरो परम्मति ॥ ३ सया च गौतम:--वानहीनोऽपि परागो जनो यस प्रमावते । समनः स परिशेगो यो पाबादिमिरः ॥m । तया च राजपुत्रः- वाहवामस्थ यो भूयो बस्यामः स्वाबिखेरतः । सपनामा पनि यो पो बैरो समवे.