Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 378
________________ नीतिवाक्यामृत Premat...... .. व्यसनी का अधुर वन-व्यय होगा इनका अत्ति करने से निर्धनता-वश उसे धनान्यों के समक्ष धन के लिये दीनता प्रगट करनी पड़ती है अत: नैतिक पुरुष को व्यभिचारिणी स्त्रिों व वेश्याओं से दूर रहना चाहिए ॥ ४०-४१॥ मिछाने की गद्दी व ओदने को कम्बल,कृषि-आदि में उपयोगी गो-बैल आदि जोग, धन, विवाहित स्त्री रूप परिग्रह एष समस्त कार्य करने में निपुण सेवक, ये वस्तुयें किसे सुखदायक नहीं होती १ सभी को होती हैं ।। ४२ ॥ लोभी के समस्त विद्या भादि गुण निष्फल होते हैं, क्योंकि उनका यह सहुपयोग नहीं करता ॥ ४३ ॥ याचना करने वाला कौन मनुष्य लघु नहीं गिना जाता ? सभी लघु गिने जाते हैं ।।४।। लोक में दरिद्रता से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु मनुष्यको दृषित ( दोषयुक्त) नहीं बनाती, दरिद्रता ही सबसे बड़ा दोष है जिसके कारण मनुष्य के समस्त गुण निष्फल हो जाते हैं ॥१५॥ किसी विद्वान ने भी गुणवान दरिद्र व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले उपकार को शङ्कायुक्त कहा है। धनाढ्य से धन न मिलने पर भी याचक लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, पुनः धन मिलने पर तो उसकी प्रशंसा के पुल बांधना कोई बड़ी बात नहीं ॥ ४ ॥ वल्लभदेव ने भी नीच कुल के कुरूप धनाड्य पुरुष की यायकों द्वारा स्तुदि यताई है ।१॥ जबकि साधु पुरुष भी धनाढ्य पुरुष की प्रशंसा करते फिर साधारण लोगों का तो कहना ही क्या है ?.वे तो उसकी प्रशंसा करते ही हैं। ४७ । वल्लभदेव ने भो धनाढ्य पुरुष को कुलीन, पंडित, अतधर, गुणा, वक्ता व दर्शनीय कहा है ॥१॥ पवित्रवस्तु, उत्सव, पर्व, तिथि व यात्राका माहात्म्य, पांडित्य, चातुर्य व लोकव्यवहारन रत्नहिरण्यपूताज्जलात्परं पावनमस्ति ।४८ ॥ स्वयं मेध्या पापो षन्हितप्ता विशेषतः४६ स एवोत्सवो यत्र वन्दिमोक्षो दोनोदणं च ॥ ५० ॥ तानि पर्वाणि येवतिथिपरिजनयो: प्रकामं सन्तर्पणं ॥ ५१॥ तास्तिथयो यास नाघमाचरणं ।। ५२ ॥ सा तीर्थयात्रा यस्या. मकृत्यनिवृत्तिः ॥ ५३ ।। तत्पाण्डित्यं यत्र वयोनियोचितमनुष्ठानम् ।। ५४ ॥ तचातुर्य यत्परप्रीत्या स्वकार्यसाधनम् ॥ ५५॥ तन्लोकोचितत्वं यत्सर्वजनादेयत्वम् ॥५६॥ मर्थ-मरकत आदि रत्न व सुवर्ण से पवित्र किये हुए जमको बोरकर दूसरा कोई पदार्थ पवित्र नहीं है । सारांश यह है कि ऐसा जल स्नान करने व पीने के लायक है ॥४८ ॥ जल स्वयं पवित्र है । तथा चोकसं-उपकारपणे पाति:, निर्धन स्पषिगृहे । पारपियति मात्र पान्यो मन्यते गृहो । २ तया च वरजभवेषः- स्वया सरयो दाना लीनो स्पवाद सोनोऽपि विपिपोऽपि गोषते . धमाधिभिः ॥ ॥ १ तथा सपनामदेवः- पक्ष्मास्ति दिस नरः कुशीना, स पपिंडवः स भवान् गुमशः। स एम पता सपर्शनीय सगुणाः काम्चममाभयन्ति ॥१॥

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