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5यवहार ममुरेश
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गाजपुत्र' ने भी अधिक पादर-दिसे प्राप्त हुए क्षणिक स्वार्थ युक्त प्रेमको परिचय मात्र बताया है ।।१ __ वादीमसिंह' सूरि ने इकतरफी प्रेमको मूखों की चधा बताई है। मनुष्य का वह व्यवहार निंद. नीय है, जिसमें पाप प्रवृत्ति (परस्त्री संवन व चोरी-आदि) द्वारा उसकी लोक-निन्दा होती हो, अथवा जो छल-कपट-पुणे हो, क्योंकि ऐसे लोक-निन्दित दुष्ट आचरणसे पहिक व पारलौकिक कप होन है ॥१४॥
जैमिनि' भो लोक निन्दित विद्वान का विद्वान नहीं मानता ||१
विशा-विहीन (शिक्षा शून्य) और माता-पिता अादि शभचिन्तकों को बिनय न करने वाला पुत्र निय है। अर्थात-उसे पुत्र न समझकर गृह में उत्पन्न हुआ शत्रु समझना चाहिये ॥ १६ ॥
बल्लभदेव ने गर्भ रहित व दूध न देने वाली गाय के ममान अशिक्षित व अमिक पुत्र को निक बताया है।॥३॥
नस मनुष्य का ज्ञान निंग है-वह ज्ञानी है, जिसकी चित्त-युति बिया के गव स दूषित होचुकी है ॥१७॥
शक विद्वान ने भी ज्ञान का मद करने वाले की कड़ी मालोचना की है ॥ १ ॥
मोटरय दूसरे की निन्दः कुली करनेवाला और समन में प्रिय वचन योजनेवाले की सजनता निन्ध है। अधांत ऐसे व्यक्ति को दुष्ट जानना चाहिये ।। १८ ॥
गुरु' ने भी पर निन्दक व चुगलवारकी सजनता विषमण समान हानिकारक बताई है ॥१६॥
अपनो विद्यमान सम्पत्ति से संतुष्प न रहनेवाले शिष्टपुरुषों की सम्पत्ति लिंग है, क्योंकि वे लोग मृष्णाश दुःखी रहते हैं; अतः संतोष धारण करना चाहिये ।।१६ ॥
निंग उपकार, नियुक्ति के अयोग्य, दान दी हुई वस्तु, सत्पुरुषों का कर्तव्य, सस्थर, धर्मरक्षा व दोषशुद्धिका मापन
तरिक कृत्यं यत्राक्तिरुपकृतस्य ॥२०॥ तयोः को नाम निहि। यो दापि प्रभूनमानिनी पंडितो लुब्धो मूखी चासहनी वा । २१०६ बान्त इव स्वदत्त नाभिलाष कुर्यात् ।।२२।। उपकृत्य मूकमात्राऽभिजातीनाम् ॥२३॥ परदोपत्रणे बधिरमावः सत्पुरुषाणां
॥२४|| परकलत्रदर्शनेऽन्धभावो महाभाम्पानाम् ॥२शा शत्रावपि गृहायाते संभ्रमः , तथा च राजपुत्र:-पद्गग्यं गुरुपौरवस्य सुखदो परिक्षामन्तेऽन्तर। पापियवशात्रयाच सहसा गर्मोपहा__सार यान् । बल्लरनं न रुणद्धि यत्र रापधरूपाने प्रत्ययः । सरिक प्रेम स उच्यते परिचयस्तत्रापि कोपेन f m
तथा व वा मसिंहः-एककोटिगतस्नेहो जमानां खलु पेष्टितम् । । तथा च जैमिनिः-जाबने वाच्यता यस्य श्रोत्रियस्य वृथा हि तस् | अनाचारात्मदादिष्ट श्रोत्रियत्वं वदन्ति मा! • तथा बल्लभदेवः-कोऽर्थः पुत्र व जतन यो न विद्धान पार्मिकः । किं तमा क्रियते भेन्या या न सो म दुग्धदा १ स्पा शुक:-विधामदो मवेशीचः पश्यपि न पश्यति । पुरस्थं पूज्यज्ञोक र नाविनास गायतः til
ता व गुरु-प्रत्यारेऽपि प्रिथं भने परामु विभागते । सौजन्यं तस्य विशेष पथा किंपाच ॥३॥