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३५१
व्यवहार समुहेश
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भागुरिने भी गृहागत व्यक्ति के विषय में इसी प्रकार कहा है।॥१॥
विवेकी मनुष्यको गृहके मध्य में रक्खे हुए उत्तम धनके समान अपना धर्म (दानपुण्यादि) प्रकाशित नहीं करना चाहिये । अर्थात् जिसमकार गृहमें रखा हुआ धन नष्टहोने के भयसे चौर-बादिके सामने अगट नहीं किया जाता, उसी प्रकार अपना धर्म भी नष्ट होनेके भयसे किसी के समक्ष प्रगट नहीं किया. जाता ॥१७॥
न्यास ने भी अपना धर्म प्रगट करनेवाले को मूर्ख कहा है ॥१।।
गर्ष व कामक्रोधादि कषायवश होने वाले दोषोंकी यक्षिके लिये निम्न प्रकार तीन उपाय है। १-अपने दोषोंको गुरुजनों के समक्ष प्रकट करना, किये हुए दोषो' पर परमात्ताप करना, ३–प्रायश्चित्त करना ॥२८॥
भारद्वाज' का भी दोष-शुद्धिक विषयमें यही अभिप्राय है ||
धनार्जन सम्बन्धी कष्टकी सार्थकता, नीच पुरुषोंका स्वरूप, वन्य चरित्रवान, पीडाजनक कार्य ष पंचमहापातकी -
श्रीमतोऽर्थार्जने कायक्लेशो धन्यो यो देवद्विजान् प्रीणाति ॥२६॥ चणका इव नीचा उदरस्थापिता अपि नाविकुर्वाणास्तिष्ठन्ति ॥३०॥ स पुमान् वन्यचरितो यः प्रत्युपकारमनपेक्ष्य परोपकारं करोति ॥३१॥ अज्ञानस्य वैराग्यं मिचोटित्वमधनस्य विलासो चेश्यारतस्य शौचमविदितवेदितव्यस्थ सम्बाग्रह इति पंच न कस्य मस्तकशूलानि ॥३२॥ सहि पंचमहापातकी योऽशस्त्रमशास्त्र वा पुरुषमभियुजीत ॥३॥
भर्ष- ओ धनाड्य पुरुष अपने धन द्वारा देव, विज भोर बारकों को सन्तुष्ट करता है, उसका भोपार्जनके लिये शारीरिक कष्ट उठाना प्रशंसनीय है ।।२।।
अषिपुत्रका विद्वानके मद्धरण का भी यही अभिप्राय है ।। १ ।।
नीच पुरुषों का चाहे कितना ही उपनगर किया जावे, तथापि पनोंके भषण, ममान बिना अपकार किये विभाम नहीं लेते। अर्थात जिसप्रकार चने खाये जाने पर विकार (अधोवायु निस्मारण्य शरा जनसाधारससे हसी मजाक कराना) पपा कर देते हैं, उसीरकार सपत हुएभी नीच पुरुष अपकार कर सकते हैं ॥३०॥
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। पर च भागरि:-प्रमादरो न म्यः शोपि विकिमा । स्वगृहे भागतस्मात्र किं पुनमंहतोऽपि ॥१॥
तथा पम्पासा-साकीव कीवरम को अभाभी स मम्मी । ' गत: समानाति पापस्य कवितस्य च १ । तथा च भावामः-मप्रमाव बाई या पासपोरमे। गुरुभ्यो थुक्तिमाप्नोति ममस्वायो ग भारत ॥१॥ • तथा ऋषिपुत्रका-कापक्लेशो भवस्तु धनार्जनसमुनयः । तस्यो भनिनो योनं सबिभागो हिमाविंधु १