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२७-व्यवहार समुद्दश। मनुष्योहा हद बन्धन, अनिवार्य पालन-पोषण, तीर्थ सेवाका फल, तीर्थस्थानों में रहनेवालों की प्रकृति, निवा स्वामी, सेवक, मित्र, स्त्री व देश---
कलत्रं नाम नराणामनिगड़मपि दृढे बन्धनमाहुः ॥१॥ श्रीएयवश्यं भर्तव्यानि माता कलत्रमप्राप्तव्यवहाराणि चापत्यानि ॥२॥ दान सपः प्रायोपवेशनं तीर्थोपासनफलम् ॥३॥ तीर्थोपवासिषु देवस्वापरिहरणं कव्यादेषु कारुण्यमिव, स्वाचारच्युतेषु पापभीरुत्वमिव प्रारधार्मिकत्वमतिनिष्ठुरत्वं वञ्चकत्वं प्रायेण तीर्थबासिना प्रकृतिः ॥४॥ स कि प्रभुयः कार्यकाले एव न सम्भावयति भृत्यान् ॥५॥ स किं भृत्यः सखा वा यः कार्यमहिश्यार्थ याचते ॥६।। यार्थेनप्रणयिनी करोति चाङ्गाष्टिं सा कि भार्या ॥७॥ स कि देशा यत्र नास्त्यात्मनो वृत्तिः ॥
अर्थ - विद्वानों ने कहा है, कि पुरुषों को स्त्री रूप बन्धन सांकलों का न होकरके भी उससे कहीं अधिक हद ( मजबूत ) है क्योंकि स्त्रीके प्रम-पाशमें फंसे हुए मनुष्यका उसमे छुटकारा पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है और इमीकारण वह आत्म-कल्याण के उपयोगी नैतिक व धार्मिक सस्कर्तव्यों से विमुन्न रहता है । शा
शुक विद्वान ने भी स्त्रीको दृढ़ इन्धन स्वीकार किया है। शा मनुष्यको माता, स्त्री और प्रौढ़ न होने से जीवन-निर्वाह करने में असमर्थ पुत्रोंका पालन-पोषगा अवश्य करना चाहिए ॥ २॥
गुरु विद्वान ने भी उक्त माता प्रादि का आवश्यकीय संरक्षण बताया है ॥ १॥
पात्र-दान, तप व अनशन (उपवास) अथवा जीवन पर्यन्त तीर्थ भूमिमें रहने का दृढ़ संकल्प करना, या प्रायोपगमन सन्यास धारणा यह तीर्थ स्थान की सेवा का फल है। अर्थात-विवेकी पुरुष इन सत्कव्यों के अनुष्ठान से तीर्थ सेवा का फल (स्थायी चास्मिक सुख) प्राप्त कर सकता है। और
A मु० म०प्रति में 'इतरेषां पर विशेष है, जिसका अर्थ यह है कि नैतिक पुरुष वूसरोंके बयोंका भी जो
जीविकायोग्य नहीं है, पालन पोषण करे । B उक्त पत्र मु० मू० प्रति से संकलम किया गया है क्योकि टी. पु. का पाठ अशुन्द था। -सम्पादक , तथा च शुकः-- न कस्लमात् परं किंचिवन्धनं विवाते नृणो। यस्मात्तस्नेहनिमंजो न करोति शुमानि बत् ॥ २ तथा च गुरु:-मातर' च कलनच गर्भरूपाणि यानि च। अमाप्तम्यवहारणि सदा पुष्टिं न वेद् बुधः ।।