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नीतिवाक्यामृत
पुरुषमा
अनुकूल कार्य आरम्भ करे क्योंकि उनको अनुकूलता के बिना कार्यसिद्धि संदिग्ध रहती है । वही मनुष्य सुधो हैं, जो संतोषो है, क्योंकि तीन लोककी सम्पत्ति मिल जाने पर भी तृष्णा नष्ट नहीं होती, अतः उसके ध्याग करने से ही सुख प्राप्त हो सकता है; अन्यथा नहीं ॥४८॥
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रजःस्या छीको सेवन करनेवाला चाण्डाल से भी अधिक नोच है ||४६ ॥ नैतिक पुरुष लज्जाशील वक्तको निर्लज्ज न बनावे। सारांश यह है कि कुसंस्कारवश नीति-विरुद्ध प्रति करनेवाला जा-वहितैषियोंके भय से अन्य नहीं करता, परन्तु उसके कार्यकी स्वयं देखकर उसे निर्लज्ञ बनाने से वह उनके मम अनर्गल प्रवृत्ति करनेसे नहीं चूकता ||२०|| जो सदाचाररूप वस्त्र से अलंकृत नहीं है, बह सुन्दर वस्त्रों से वेष्टित होने पर भी नग्न ही है ॥ ५८ ॥ सदाचारसे विभूषित शिष्ट पुरुष नग्न होने पर भी नग्न नहीं गिने जाते, अतएव लोकप्रिय होनेके लिये श्राधारण विशुद्ध रखना चाहिये १.५० ॥ सभो स्थानोंमें मन्देह करने वालों के कार्य होते और धी से बढ़कर दूसरी कोई समं रसायन (आयु व शक्तिवर्धक नहीं है ||५४ |
दूसरे प्राणियोंको पीड़ित करके जीविका करना पापियों का कार्य है, अतस्य नैतिक पुरुष यायोचित सावन द्वारा जीवन यह करे || ५५ || पराधीन भोजनकी अपेक्षा उपपास करना भद्रा है, क्योंकि पराक्षित भोजन अनिश्चित व अनियमित होनेसे विशेष कष्टदायक होता है ||२६|| उस देशमें निवास करना चाहिये जिसमें वसंकर लोग नहीं है ।
अम्मान्ध, ब्राह्मण, निःस्पृह, दुःखका कारण, उच्चपदको प्राप्ति, सदा आभूषण, राजाकी मित्रता, दुष्ट व याचकके प्रति कर्त्तव्य, निरर्थक स्वामी, सार्थक यज्ञ व सैन्य शक्ति का उपयोग —
स जात्यन्धो यः परलोकं न पश्यति ||५८ || मतं विद्या सत्यमानृशस्यमतौन्यता च श्राह्मपर्य न पुनर्जातिमात्र ॥५६॥ निःस्पृहानां का नाम परापेक्षा ॥ ६०॥ के पुरुषमांशा न मलेशयति ॥ ६१॥ संयमी गृहाश्रमी वा यस्य विधातृ ष्णाभ्यामनुपहतं चेतः ॥६२॥ शीलमलकारः पुरुषाणां न देहखेदावहो बहिरा कन्पः | ६३ ॥ कस्य नाम नृपतिर्मिश्र ॥६४॥ अप्रियकर्स ुर्न प्रियकरणात्तरममाचरणं ॥ ६५ ॥ श्रप्रयच्छमथिनो न परुषं प्रयात ||६६ || स स्वामी मरुभूमिर्यत्रार्थिनो न भवन्तीष्टकामाश्च ॥ ६७ || प्रजापालनं हि राज्ञो यज्ञो न पुनभूतानामालम्भः ||६८ || प्रभूतमपि नानपराधसत्व व्यापचयं नृपायां बलं धनुर्वा किन्तु शरखागतरंचणाय ।।६६॥
अर्थ- जो व्यक्ति अपने सत्कर्तव्यों द्वारा परलोक सुधारने में प्रयत्नशीक नहीं रहता, नही अमान्य है ॥५८॥ मनुष्य केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेनेसे ही प्राण नहीं गिना जाता, परन्तु अर्को (ईसा, सत्य, अभी आदि) का पालन, हानाभ्यास, सत्यभाषणा, क्रूरता का स्वाग व संतोष यादि सद्गुणों को धारण करनेसे वास्तविक माझा माना गया है ॥५६॥
A. B. सु. प्रति सेकसि।