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सदाचार समुद्देश
गुरु' विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिपाय है || १ ||
अभिमानी से ईर्ष्या वश दूसरे सेवकोंको उन्नति सहन नहीं करता, इसलिये वे लोग स्वामी से रुष्ट होकर उसे छोड़ देते हैं। इसप्रकार घमंडी सेवक अन्य सेवकों के रहनेपर भी अपने स्वामीको अकेला कर देता है, अत: अभिमानी सेवक नहीं रखना चाहिये ||४०||
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राजपुत्र ने भी दुष्टबुद्धि व अभिमान सेवक से इसीप्रकार हानि बताई है ॥१॥
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राजा को अपने पुत्र के लिये भी अपराधानुकूल दंड देना चाहिये फिर प्रज्ञा-पीड़क अन्याथियोंका दंड देना को न्याय संगत ही है ||४||
शुक्र ने भी अपराधानुकूल दंडविधान को न्याय संगत बताया है ॥ १॥
राजा प्रजा से अपने देशानुकूल कर (टेक्स ) वसूल करें | अभ्यथा अच्छी फसल आदि न होनेके कारण एवं अधिक कर-टेक्स से दबी हुई प्रजा राजा से विद्रोह करने तत्पर हो जाती है ॥४॥
वक्त के वचन, ध्यय, बेष-भूषा, त्याग, कार्यका आरम्भ, सुख, अधम पुरुष, मर्यादा-पालन, बुराचार से हानि, सदाचार से लाभ, संदिग्ध, उत्तम भोज्य रसायन, पापियों की वृति, पराधीन भोजन निवासयोग्य देश
प्रतिपाद्यानुरूपं वचनमुदाहर्तव्यं ॥ ४३ ॥ भायानुरूप व्ययः कार्यः ॥४४॥ ऐश्वर्यानुरूपाविलासो विधातव्यः ॥४५॥ धनश्रद्धानुरूपस्त्यागोऽनुसर्तव्यः || ४६ || सद्दायानुरूपं फर्म आरब्धव्यम् ॥४७॥ स पुमान् सुखी यस्यास्ति सन्तोषः ॥ ४८ ॥ रजस्वलाभिगामी 'चाण्डालादप्यधमः ॥४६॥॥ सलज्जं निर्लज्ज न कुर्यात् ॥ ५० ॥ स पुमान् पटावृतोऽपि नग्न एव यस्य नास्ति सच्चारित्रमा वरण६ ॥ ५१ ॥ स नग्नोऽप्यनग्न एग यो भूषितः सच्चरित्रेण ||५२ || सर्वत्र संशयानेषु नास्ति कार्यसिद्धिः ॥५३॥ न चीरघृताभ्यामन्यत परं रसायनमस्ति ||५४|| परोपघातेन वृतिर्निर्भाग्यानाम् ||१५|| वरमुपवासो, न पुनः पराधीनं भोजनम ||२६|| स देशोऽनुसर्तव्यो यत्र नास्ति वर्णसङ्करः ||२७||
अर्थ- बता श्रोता अनुकूल वचन बोले ||४३|| मनुष्य को अपनी आमदनीके अनुकूल खर्च करना चाहिये क्योंकि बिना सोचे-समझे अधिक खर्च करने वाला कुबेर के समान धनाढच होने पर भी दरिद्र हो जाता है ॥४४॥ अपने धनादि वैभवके अनुकूल विलास - देश-भूषा करना चाहिये ॥४५॥ धन औ श्रानुकूल पाशदान करना चाहिये, ऐसा करनेमे उसे अधिक कष्ट नहीं दोपाते ॥ ४६ ॥
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'गुरुः-- अभियुक्त
नस्तद्विवेकिना । घोषधीय प्रयत्नेन यदि तस्य शुभाता ॥१॥ ३] राजपुत्रः प्रसादयो भवेद्यः स्वामिनी पस्य दुष्टधीः । स स्वश्यतेऽन्यनृत्येच[कोंढवा ] [ ] ॥१॥ [सं० प०
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खमा च गुरुः– अपराधानुरूपोऽथ दमः कार्यो महीभुजा । पुनस्थापि किमन्येषां वे स् पापचयः ॥१३