________________
.२४२
नोतिवाक्यामृत
शुक' ने भी स्वार्थ-वश परोपकार करनेवालोंकी कड़ी आलोचना की है ।।१॥
[मु०म० पुस्तक में 'अभिचारेश परोपपातो' इत्यादि पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि जो लोग धोखा देकर दूसरोका यात कारण है। थे महापायी है, बार की नदी]
गुणगान-शून्य नरेश, कुटुम्य-संरक्षण, परस्त्रीव पर-ब्यके संरक्षणका दुष्परिणाम, अनुरन मषकके प्रति स्वामी-कर्तव्य, त्यायसेवक, न्यायोचित दंड विधान व राज-क संव्य
तस्य भूपतेः कुतोऽभ्युदयो जयो वा यस्य द्विषत्समासु नास्ति गुणग्रहणप्रागम्यं ॥३६॥ तस्य गृहे बुटुम्ब घरगीय यत्र न भवात परेषामिषम् । ३७॥ परस्त्रीद्रध्यरक्षणेन नात्मनः किमपि फल विप्लवेन महाननर्थसम्बन्धः ॥३८॥ आत्मानुरक्त कथमपि न त्यजेन यद्यस्ति तदन्ते तस्य सन्तोषः ॥३६॥ आत्मसंभावितः परेषां भृत्यानामसहमानश्च भृत्यो हि बहुपरिजनमपि करोत्येकाकिन स्वामिन' ॥४०॥ अपराधानुरूपो दण्डः पुत्रेऽपि प्रणेतव्या ॥४१॥ देशानुरूपः करो प्रायः ॥४सा
अर्थ-जिस राजाका गुणगान शत्र ओंकी समामें विशेषतासे नहीं किया जाना, उसकी उन्लान ११ विजय किसप्रकार होसकती है ? नहीं हो सकती। भवः विजिगीषु को शूरवीरता व नीतिमत्ता-भावि मद्गुणोंसे अलंकृत होना चाहिये ॥३६॥
शुकर ने भी कीलिंगान-शून्य राजा के विषय में इसीप्रकार कहा है ॥२॥
मनुष्यको अग्ना कुटुम्ब ऐसे व्यक्तिके मकान पर रखना चाहिये, जहाँपर बह शत्रु-कृत उपद्रवों द्वारा नष्ट न होसके ॥१७॥
जैमिनि' ने भी कुटुम्ब-संरक्षण का यही उपाय बताया है ॥१॥
मनष्य को दूसरे की स्त्री व धन के संरक्षण से कोई लाभ नहीं क्योकि कभी २ उसका परिणाम भयङ्कर होता है अर्थात यदि दुर्भाग्य-वश उसके शत्रु श्रादि द्वारा अपहरण या नष्ट किये जाने पर पल्ला उसका स्वामी संरक्षण करने वाले से बैर-विरोध करने लगता है।३०।।
अत्रि विद्वान ने भी पर स्त्री व परधन की रक्षा करमेका यही दुष्परिणाम स्वावा है ॥१॥
स्वामीको अपनी दरिद्धावस्था में भी ऐसे सेषकको नहीं छोड़ना चाहिये जो उसपर अनरसव मनुष्ट रहता है ॥३६
। तवा च बुक:- महापातकस्ताः स्युस्ते निर्वास्ति पर पक्षान् । अभिभवनमंत्रक सद्वार वचन ॥1॥ . तया :- स्पादिजस्तस्य तथैवाभ्युदयः पुनः । भूपतेर्वस्य नो कीर्ति कीर्यतेऽरिसमासु ॥ । 'पया मिनि:-मामिव मन्गिरे परव विप्न वा प्रपद्यते । कुटुम्म चारपेत्ता समान: - या प्रकि:-पराये परनारी वारलाई योऽगृहाति । विप्लव' याति दिन तत्काों वैरसम्म !"