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सदाचार समुद्देश
यस्य हरिद्वाराग व चित्तानुरागः ||२२|| स्वात्मानमविज्ञायं पराक्रमः कस्य न परिभवं करोति || २३ || नाकान्तिः पराभियोगम्योत्तर किन्तु युक्ते रुपन्यासः ||२४|| राज्ञोऽस्थाने कुपितस्य कुतः परिजनः ||२५||
अर्थ - भूख प्यास और शत्रुकृत उपद्रव आदि से व्याकुल हुए प्राणियोंको अभवदान ( उनकी रक्षा ) देनेके सिवाय संसारमें कोई उत्तम दान नहीं है ||१||
जैमिनि विन्ने भी सभी दानोंसे अभयदान को ही उत्तम बताया है ॥१॥
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धन न होनेपर उसकी प्राप्तिके लिये मनुष्यों द्वारा की हुई चिन्ता अभिलषित और अपूर्व चन स्पन्न नहीं करती, किन्तु उत्साह ( उद्योग ) ही मनुष्योंके लिये इoga और पुष्कल धन पैस करता है ||१३||
शुक्र विद्वान्ने भी योग करनेके लिये प्रेरित किया है ॥ १ ॥
जो स्वामी किसी एक सेवकको छोड़कर अन्य सभी सेवकों के कल्पक्ष समान मनोरथ पूर्ण करता है किन्तु उसो अकेलेको धन नहीं देता, इससे समझना चाहिये कि उसके पापकर्मका उदय है उसके अपराधी होनेके कारण स्वामी उससे रुष्ट है || १६ ||
भागुरि विद्वान ने भी सेवकका मनोरथ पूर्ण न होनेके विषय में बड़ी कहा है ।१११
जो मनुष्य अपने मूलधन ( पैतुक या पूर्व-संचित धन ) की व्यापार आदि द्वारा वृद्धि नहीं करता और उसे स्वर्च करता रहता है, वह सदा दरिद्रता वश दुःखी रहता है, इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को अपना मुलवन मंदाते हुए मायानुकूल खर्च करना चाहिये, ताकि भविष्यति होने पावे ॥२०॥
उसे कल न
गौसम विज्ञान मे भी अपना मूलधन भक्षण करनेवाले को दुःखो बसाया है ॥ १ बुद्धिमान मनुष्यको मूर्ख, दुध, चावडाल व पतित (अंति और धर्म से ere मिश्रा नहीं करनी चाहिये ॥२॥
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युत) मनुष्योंके
किसी विद्वान् के उद्धरण का भी यही आशय है !! २॥
जिसके वित्तका प्रेम रूंदी के रंगकी तरह क्षणिक होता है; उसके मन होनेसे क्या लाभ है ! कोई लाभ नहीं
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तथा जैमिनिः मदभीतेषु मद्दानं दानं परमं भरदारादिमः ॥१ २ सभा इकः-स्लादि पुरुपैति मोयेन देयमिति का
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देवमित्य कुछ पौरुषमाशिक्त्या वस्ने कृते यदि न संपति को दोषः ॥१७
. तथा च भारिपचति मामी सेवितोऽप्यपर्क
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गौः यो मदेहि विद्यामहं कुषीः समाः॥ तथाच पोड संगतिं कुरुतेऽचः । स्वयेरि
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