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सदाचार समुद्देश
धैको छोड़कर रोग पीड़ित मनुष्यकी दूसरी कोई उत्तम औषधि नहीं है, क्योंकि सैकड़ों मूल्यम् ओषधियाँका सेवन भी उमस बीमाको निरोग नहीं एक कि वह धैर्य वरन करे ||७||
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धन्वन्तरि' विद्वान्ने भी व्याधिपीडित पुरुषके विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥ जिस मनुष्य का जीवन कुत्सित (निन्ध) दोषों (हिसा झूठ चोरी, कुशोक्ष व परिग्रह-आदि) से नहीं हुआ उसे महा भाग्यशाला' कहा जाता है ।
विज्ञान भी जीवन निश्ति न होने वाले व्यक्ति को महानाग्यशाली कहा है ॥ १॥ मुर्खता, भयकालीन कर्तव्य, धनुर्धारी व तपस्त्री का कर्तव्य, कृतघ्नतासे हानि, हितकारक बचन, दुर्जन व सज्जनां वचन, लक्ष्मी त्रिमुख व वंशवृद्धिमें असमर्थ पुरुष
पराधीनेष्वर्थेषु स्त्रोत्कर्ष संभावनं मन्दमतीनाम् ||६|| न भयेषु विषादः प्रतीकारः किंतु धैर्याविलम्बनं ॥ १० ॥ स किं धन्वी तपस्वी वा यो रणे रणे शरसन्धाने मन:- समाधाने च सुझति । ११ । कृते प्रतिकृतमकुर्वतो मैहिकफ जमस्ति नामुत्रिकं च ||१२|| शत्रुणापि सूक्तमुक्त न दूषयितव्यम् ||१३|| कलहजननमप्रीत्युत्पादनं च दुर्जनानां धर्मः न सज्जनानाम् ॥१४॥ श्रीनें तस्याभिमुखी यां लब्धार्थमात्रेण सन्तुष्टः ॥ १५ ॥ तस्य कुतो वंशदृद्धियों न प्रशमयति वैरानुबन्धम् ।। १६ ।।
अर्थ- मूर्ख लोग पराधीन (दूसरों के द्वारा की गई) इष्ट प्रयोजन-सिद्धिको स्वदः की हुई समा आनन्द प्रगट किया करते हैं ॥ e ॥
कौशिक' विज्ञानने भी मूर्खोंके विषय में यही लिखा है ॥१॥
मनुष्यको भयके स्थानों में चबढ़ाना उपकारक नहीं, किन्तु धैर्य धारण करना ही उपकारक है ॥१००
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भृगु विद्यामने भी मयस्थानोंमें धैर्य रखना लाभ-नायक बताया है ||१||
वह धनुर्धारी निन्द्य है, जो युद्धभूमिमें कमान पर तीर बढ़ाकर एकाग्रचित्तसे सचयभेद करने प्रज्ञान करता है इसीप्रकार वह तपस्वी भी निम्ध है, जिसकी बिसवृति मृत्युके समग्र अस्मदर्शन, श्रवण, मनन व निदिध्यासन (ध्यान में प्रवृत न होकर जीवन, आरोग्य व इन्द्रियोंके भोगोपभोगों प्रेसर होती है | ११वा
। तथा च कन्वन्तरि—ज्याभिस्तस्म पर दंव परमौषधं । मत्स्य धैर्यहीनस्थ किमोथ
२ तथा च गणेः श्राजन्ममरकान्तं वा यस्य न जायते । सुचलं महाभागो विहेः
कौशिकः कार्येषु विमानेषु परस्य वशमेषु च। आत्मीबेध्विद भृगुः भ्राने विधार्थ वः कुरुते न विनश्यति । [तस्थ वजनदं
द भाटि स मन्दधीः ||१||
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संशोधित परिवर्तित सम्बाद