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नीतिवाक्यामृत
नारद' विद्वान् के उद्धरणका भी यही आशय हैं ॥ १ ॥
उपकारक
गाथा न करनेसे एवं किसी के द्वारा अपकृत होने पर अपकार द्वारा इसका प्रतीकार (शोधन) न करने से ऐहिक व पारलौकिक इष्टफल नहीं मिलता ॥ १५॥
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हारीत विद्वान्ने भी कृतघ्न के विषय में इसी प्रकार कहा है ||१शा
नैतिक पुरुष शत्रु द्वारा भो कहे हुए न्याय युक्त व हितकारक वचनों का दोष युक्त न बतावे
उनपर सदा अमल करवा रहे ||१३५
नारद के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है || १॥
दुष्टोंके वचन कलह (गैर-विरोध ) व द्वेष उत्पन्न करने वाले होते है जब कि सज्जन महापुरुत्रांक बचन ऐसे नहीं होते किंतु कल्याणकारक होते हैं ॥ १४ ॥
भारवि विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है || १||
खो मनुष्य प्राप्त किये हुए साधारण धन मे ही संतुष्ट रहता है, उसके पास लक्ष्मी नहीं जाती. अतः भ्यायोचित साधनों द्वारा धन संचय करने में प्रयत्नशील रहना चाहिये ॥१४॥
भागुरि विद्वान्ने भी लक्ष्मी के विमुख रहने का यही कारण बताया है ॥१॥
जो पुरुष शत्रुओं द्वारा की जाने वाली वैर-विरोध की परम्परा को साम, दान, ड व भेद-आदि नैतिक उपायोंसे नष्ट नहीं करता उसकी वंश-वृद्धि किस प्रकार हो सकती है ? नहीं हो सकती ||१६|| शुक्र' विद्वान्ने भी शक्तिशाली वंश के ह्रासके विषय में यही कहा है ॥१६॥
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उच्चमदान, उत्साह से लाभ, सेवक के पाप कर्मका फल, दुःखका कारण, कुसंग का स्थान, चित्त वालेका प्रेम, उठावले का पराक्रम व शत्र - निम का उपाय - भीतेष्वभयदानात्पर' 'न दानमस्ति ||१७|| स्वस्यासंपत्तौ न चिन्ता किंचित्कां चितमर्थ [ प्रसूते ] दुग्धे किन्तुत्साहः ||१८|| स खलु स्वस्यैवापुण्योदयोऽपराधो वा सर्वेषु कम्प फलप्रदोऽपि स्वामी भवत्यात्मनि बन्ध्यः ||१६|| स सदैव दुःखितो यो मूलधनमसंवर्धयन्ननुभवति ||२०|| मूर्ख दुर्जन घायढाल पतितैः सह संगतिं न कुर्यात् ॥ २१ ॥ किं तेन तुष्टेन
"सचा नारदः स्वर्षा यान्ति शरा यस्य युद्धं स्वान् वा योगिनोऽथकान स्मृति (१) योगान् ॥३॥
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हात ते प्रतिकृतं नैव शुभं या यदि वाशुः करोति च सूात्मा ग्रस्य लोक महि ३ तथाच नारदः– शत्रु वापि हि यत् प्रोक्तं साद्वारे सुभाषित | संघ आणि खोदतः संखाबले । सजतो धर्ममाचष्टे याच भारि : अपेनापि प्रवेश व मेव प्रतुष्यवि । पराङ्मुखो भवेत्तस्य ६ः -सासादने प्रशामयेत्। भवानपि शोमा
ग्राम बुद्धिमता सदा ॥१॥ किया तथा ॥१॥ बधमानात्र संशयः ॥ ३ ॥ ॥ बाति शनैः शनैः॥