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নবিৰাসূল -
२६ सदाचार-समुद्दश। अत्यधिक लोभ आलस्य व विश्वाससे हानि, वलिष्ट शत्रु-कृत आक्रमण से बचाव परदेशके दोष, पापप्रवृत्ति के कारण प्रतिष्ठा-शून्यकी हानि, व्याधि-पीड़ित व्यक्तिका कार्य, धार्मिक व्यक्तिका महल, बीमारकी औषधि व भाग्यशालो पुरुष
लोभप्रमाद विश्वास वृहस्पतिपि पुरुषो वक्ष्यते वञ्चयते याशा बलवताधिष्ठितस्य गमन तदनुप्रवेशो वा श्रेयानन्यथा नास्ति मोपायः ॥२॥ विदेशवासोपहतस्य पुरुपकारः विदेशको नाम येनाविज्ञातस्वरूपः पुमान् स तस्य महानपि लघुरेव ॥३॥ अलब्धप्रतिष्ठस्य निजान्वयेनाहङ्कारः कस्य न लावच करोति ॥४|| आर्तः सर्वोऽपि भवति धर्मबुद्धिः ॥५॥ स नीरोगो यः स्वयं धर्माय समीहते ॥६॥ व्याधिनस्तस्य ते धैर्यान्न परमौषधमस्ति ।।७।। स महाभागो यस्य न दुरपयादोपहत जन्म ॥८॥
__अथे-बृहस्पतिके समान बुद्धिमान पुरुष भी अधिक लोभ, मालस्य व विश्वास करने से मारा जाता है अथवा ठगा जाता है ||१|| बलिष्ठ शत्रु द्वारा प्राकमण किये जाने पर मनुष्यको पा तो अन्यत्र चले जाना चाहिये अथवा उससे सन्धि कर लेनी चाहिये, अन्यथा उसकी रक्षाका कोई उपाय नहीं ।।२।।
शुक्र । विद्वान्ने भी पलिष्ठ शस्त्र कृत आक्रमण से बचने के विषय में इसीप्रकार कहा है ।।
परदेश-गमनसे दूषित व्यक्तिका अपनी विद्वत्ता-पादिके परिचय करानेका पुरुषार्थ (वक्तस्वकला मादि) म्यर्थ है, क्योंकि जिसके द्वारा उसका स्वरूप (विद्वत्ता-आदि) नहीं जाना गया है, वह पुरुष उसके महान् होने पर भी इसे छोट। समझ लेता है ।।३।।
अत्रि- विद्वान् के सद्धरण का भी यही अभिप्राय है ।।।
जो पाप-वश समाज व राष्ट्र द्वारा प्रतिष्ठा नहीं पासका और केवल अपने बंशका अभिमान करता है, ऐसे अभिमानीको लोकमें कौन लघु नहीं मानता ? सभी लघु मानते हैं ।।४|| सभी पुरुष म्याधिसे पीमित होनेपर मृत्यु के भयसे अपनी बुद्धि धर्म में लगाते हैं, निरोगी अवस्था नहीं |
शौनक' ने भी व्याधि-पीड़ित मजबूर व्यक्ति को मन्युके भय से धर्मानुरक्त बताया है ॥१॥
जो मनुष्य स्वयं-विना किसीकी प्रेरणाके-धर्म करनेकी चेष्टा करता है, यह निरोगी समस जाता है व पापी निरोगी होने पर भी बीमार माना गया है ॥६॥
हाराहान्ने भी इसी प्रकार कहा है ॥१॥
1 वषा व शुक्रा-सवान् स्याक्वा शसस्वदा देश परित्यजेत् । तेनैव सह सचिवा याच स्पोबते ऽपया २ तयार अनिः-महानपि पिदंशस्थः स परैः परिभ्यते । पशाबमानस्ताशमाहात्म्य तस्य पूर्वकं ॥१॥
तमाशौनक:-पधिप्रस्तस्म बुदिः स्मादमस्योपरि सर्वतः । मयेन मराजस्म स्वभावान * तथा हारीत:--जीरोग सपरियो यः स्वमं धर्मपायक: । प्याशितोऽपि पारमा मोरोगोऽपि म रोगया I